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प्रस्ताव ६ : धन की खोज में
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ही* आग्रह है कि मैं अभी विदेश नहीं जाऊं तो ठीक है। मेरे पास जो थोड़ी पूजी है उसी से मैं यहाँ रहकर अलग व्यापार करूंगा, पर मैं अपना मकान अलग लूगा और अपनी दुकान भी अलग खोलूगा। [६५]
बकुल सेठ ने मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकर किया, क्योंकि वह चाहता था कि किसी प्रकार उसकी पुत्री उसकी दृष्टि के सामने ही रहे। धनशेखर द्वारा कर्मादानों (निम्नकोटि) का व्यापार
इसके पश्चात् मैंने व्यापार करना प्रारम्भ किया। मेरा मित्र सागर (लोभ) मेरे भीतर रहकर बार-बार मुझे प्रेरित करता रहता था जिससे प्रतिक्षण धन पैदा करने के नये-नये तर्क-वितर्क और विचार-तरंगे मेरे मन में हिलोरें ले रही थीं। (मेरा मन धन बढाने के भिन्न-भिन्न रास्तों पर बिना लगाम के घोड़े की तरह सरपट भाग रहा था) । इससे मेरी धर्मबुद्धि भ्रष्ट हो रही थी। किसी भी प्रयत्न से धन बढ़ाना बस यही मेरा लक्ष्य हो गया था, जिससे मेरी दयालुता भाग रही थी और सरलता तथा नम्रता का नाश हो रहा था। मेरी बुद्धि ऐसी कुण्ठित हो गई थी, इस कारण मुझे ऐसा लग रहा था कि इस संसार में मात्र धन ही सार है, प्रधान है । व्यवहारी का मन रखने की स्वाभाविक उदारता भी मुझ में घटती जा रही थी और मेरे हृदय से संतोष भी अदृश्य होता जा रहा था। फिर मैंने अनाज लेना शुरू किया। अनाज, तेल और रुई बड़े-बड़े गोदामों में भरने लगा। लाख का, गुड का और जीवों से संकुलित तेल निकलवाने का (घाणी का) धन्धा भी करने लगा। पूरे के परे जंगल कटवा कर कोयले बनवाने का धन्धा भी करने लगा। (ये सभी कर्मादान हैं जिनसे महा प्रारम्भ होता है)। सच्चा झूठा करने लगा। सरल प्रकृति के लोगों को लेने-देने में लूटने लगा। मुझ पर विश्वास रखने वालों को धोखा देने लगा। लेने-देने के झठे तोल-माप रखकर अधिक लेने और कम देने लगा। धन-चिन्ता में मैं इतना तन्मय हो गया कि तेज प्यास लगने पर भी मुझे पानी पीने की और भूख से व्याकुल होने पर भी भोजन करने का समय नहीं मिलता । धन की लोलुपता में मुझे रात को नींद भी नहीं पाती। (मेरी अत्यन्त सुन्दर, सरल, पतिभक्ता, पद्म जैसी प्रियपत्नी कमलिनी से भी मिलने का, दो बातें करने का, उसके निकट बैठने का और सहवास का समय भी मुझे नहीं मिलता।] पत्नी के सुन्दर दिव्य विकसित कमल जैसे प्रारक्त और मधुर अधरों पर भ्रमर की भांति रसपान करने का भी मुझे इस धन लोलुपता के कारण कभी समय नहीं मिला। [६६-६७]
हे कमलनेत्री अगृहीतसंकेता ! इस प्रकार मैंने अनेक कष्ट सहे, दुखः उठाये और चिन्ता में अपने को गलाया तब कहीं जाकर मेरी पूजी में ५०० मोहरों की वृद्धि हुई। जैसे ही मेरे पास डेढ हजार मोहरें हुई वैसे ही मेरी इच्छा उन्हें दो हजार करने की हुई। हिंसाजन्य अनेक निम्न व्यापार करने पर जब मेरे पास दो * पृष्ठ ५५४
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