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________________ १२६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा दुकान पर बैठा था। जिस समय उसने मुझे देखा उसी समय मेरे मित्र पूण्योदय ने उसके मन में कुछ आन्तरिक प्रेरणा उत्पन्न की जिससे वह स्वयं चलकर मुझ से मिलने आया, बातचीत की, प्रसन्न हया और प्रीति पूर्वक मुझे अपने घर पर चलने और रहने के लिए निमंत्रित किया । न मालूम किस कारण से मेरे प्रथम दर्शन से ही उसके दिल में मेरे प्रति स्नेह उभर आया, मानो मुझे देखकर उसके स्नेह तन्तु विकसित हो गये हों । मैंने उनका निमन्त्रण स्वीकार किया, अत: वे तुरन्त ही मुझे अपने घर ले गये । घर में अपनी प्रिय पत्नी भोगिनी को बुलाकर उन्होंने उससे मेरा पूर्ण आदर-सत्कार करने के लिए आदेश दिया। फिर सेवकों ने मुझे स्नान करवाया और सुकोमल रेशमी वस्त्र पहनने के लिए दिये । वस्त्र पहनकर मैं बाहर आया तो मुझे एक सुन्दर आसन पर बिठा कर, सेठ ने मेरे साथ ही बैठकर मनोहारी स्वादिष्ट भोजन किया । भोजन करके उठने पर मुझे पान-सुपारी दी गई। भोजन के पश्चात् बातचीत चली। सेठ निश्चिन्त होकर मेरे पास बैठा और प्रेमपूर्वक 'मैं कहाँ का निवासी हूँ ? मेरा कुल, जाति और नाम क्या है ?' प्रादि प्रश्न पूछने लगे । मैंने भी उन्हें सत्य-सत्य बतलाया। मेरा पूर्ण परिचय प्राप्त कर सेठ मन में सोचने लगा कि यह तो कुल, शील, वय और रूप में योग्य है, अपनी ही जाति का है और सुन्दर रूपवान है, अत: अपनी पुत्री कमलिनी के यह सर्वथा योग्य है । कमलिनी सेठ की इकलौती पुत्री थी । वह रूप में कामदेव की पत्नी रति से भी सुन्दर और समस्त शुभ लक्षणों और गुणों से युक्त थी । सेठ ने अपनी पुत्री को पास बुलाया। दृष्टि-सम्मिलन से दोनों का परस्पर प्रेम देखकर, सेठ ने शुभ दिन देखकर उसका विवाह मेरे साथ कर दिया। तदनन्तर बकुल सेठ ने मुझ से कहा-.. वत्स धनशेखर ! यह घर तुम्हारा अपना ही है, ऐसा समझो। किसी भी प्रकार की उद्विग्नता से रहित होकर यहाँ रहो और मेरी पुत्री के साथ प्रानन्द करो। __ मैंने उत्तर में कहा-आदरणीय ! जब तक मैं अपने भुजबल से रत्नों के ढेर एकत्रित नहीं करू तब तक मेरे लिए भोगलीला एक प्रकार की बिडम्बना मात्र ही है । मेरे विचार से तो ऐसा प्रानन्द तिरस्कार और धिक्कार के योग्य ही है । ऐसे भोग भोगने मुझे उचित नहीं लगते । अतः हे पूज्य ! भविष्य में आप मुझे ऐसी प्राज्ञा न दें । मैं घर पर नहीं रह सकता । मुझे आप कोई अच्छा साथ बताइये कि जिसके साथ में रत्नद्वीप जाऊँ और वहाँ से अपने परिश्रम से रत्नों का संचय कर साथ लेकर पाऊं। [६२-६३] बकुल सेठ ने कहा – वत्स ! दुर्लध्य विशाल समुद्र लांघ कर इतनी दूर जाने की तुझे क्या आवश्यकता है ? मेरी पूजी लेकर उससे यहीं अपनी इच्छानुसार व्यापार करो और धन कमाओ । [६४] मैंने सेठ के इस उदार प्रस्ताव पर न तो कुछ ध्यान दिया और न उसका आभार ही माना। उत्तर में मैंने इतना ही कहा-पूज्य श्री! यदि आपका ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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