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________________ प्रस्ताव ६ : धन की खोज में खन्यवाद (धातुवाद) जिस स्थल पर क्षीरवृक्ष ( जिसके तने में छेद करने पर दूध जैसा सफेद पदार्थ निकले ) उगा हो, उस स्थान पर थोड़ा या अधिक धन अवश्य ही मिलता है । जहाँ बेलपत्र या पलाश का वृक्ष हो वहाँ भी थोड़ा बहुत धन अवश्य होता है । यदि वृक्ष का तना मोटा हो तो धन अधिक होता है और पतला हो तो धन कम होता है । यदि ये वृक्ष रात में चमकते हों तो धन अधिक होगा और यदि रात्रि में सिर्फ गर्म ही होते हों तो धन कम होगा । केसू या बेल के वृक्ष के तने में छेद करने पर यदि लाल रंग का रस निकले तो उस स्थान पर रत्न हैं, यदि पीले रंग का रस निकले तो सोना और सफेद रंग का रस निकले तो चांदी है, ऐसा समझना चाहिये । केसू के वृक्ष का तना ऊपर से जितना मोटा हो और यदि नीचे से भी * उतना ही मोटा हो तो उस स्थान पर प्रचुर निधान सुरक्षित है, ऐसा समझें । यदि उस वृक्ष का तना ऊपर से पतला, पर नीचे से मोटा हो तो उस स्थान पर भण्डार छुपा हुआ होना चाहिये, पर यदि उसका तना ऊपर से मोटा और नीचे से पतला हो तो उस स्थान पर कुछ भी धन छुपा हुआ नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । [ ५७-६१] मैंने जो उपरोक्त खनिजवाद (धातुवाद) सीखा था वह मुझे याद आ गया । मेरे सन्मुख जो पलाश (केसू) का वृक्ष था उसका मैंने भलीभांति निरीक्षण किया । इस वृक्ष का तना ऊपर जाकर पतला हो रहा था, अतः मैंने सोचा कि इस स्थान पर विपुल धन होना चाहिए । फिर मैंने उसके तने में अपना नाखून गड़ाया तो उसमें से पीले रंग का रस निकला, जिससे मैंने सोचा कि यहाँ सोना होना चाहिये । उसी समय मेरे मित्र सागर (लोभ) ने मुझे प्रेरित किया जिससे मैं वृक्ष के नीचे का भाग खोदकर उसमें से सोना निकालने के लिए उद्यत हुआ । मैंने 'नमो धरणेन्द्राय नमो धनदाय नमो क्षेत्रपालाय' आदि मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उस वृक्ष के नीचे का भाग खोदना प्रारम्भ किया । खोदते खोदते स्वर्ण मोहरों से भरा हुआ एक तांबे का पात्र मुझे दिखाई दिया। यह देखकर मेरा मित्र सागर बहुत प्रसन्न हुआ । मैंने भी उन मोहरों को गिना तो वे पूरी एक हजार निकलीं । वास्तव में तो यह सब मेरे दूसरे मित्र पुण्योदय की शक्ति का प्रभाव था जो कि मेरे शरीर में समाया हुआ था, पर महामोह के वशीभूत और सागर के प्रति पक्षपात होने से मैं यही मानता रहा कि मुझे इस धन की प्राप्ति मेरे मित्र सागर की कृपा से ही हुई है । इतना धन प्रारम्भ से ही प्राप्त होने पर मेरे मन में तनिक संतोष हुआ । जयपुर में कमलिनी के साथ लग्न उन एक हजार मोहरों को छुपा कर अपने शरीर पर बांधकर मैंने जयपुर नगर में प्रवेश किया । मैं सीधा बाजार में गया । बाजार में बकुल नामक सेठ अपनी ** पृष्ठ ५५३ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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