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________________ प्रस्ताव ६ : धन की खोज में १३१ भिजवा दिया। जब मुहूर्त का शुभ दिन और समय आया तब समस्त प्रकार के मांगलिक कृत्य कर मैं ठीक समय पर जहाज पर चढ़ा । मेरे प्रांतरिक मित्र सागर और पुण्योदय भी मेरे साथ ही थे। [६३-६४] जब हमारे जहाजों का लंगर उठाने का समय हया तो शहनाइयां बजने लगी, शंख बजने लगे, मंगल गीत गाये जाने लगे, चपल बटुक ब्रह्मचारी स्वस्ति पाठ करने लगे और वृद्ध लोग आशीर्वाद देते हुए वापस नगर की ओर जाने लगे। छोड़ी हुई पत्नी दीन अबला जैसी लगने लगी। मित्रों में कुछ प्रसन्न हुए और कुछ खिन्न हुए और सज्जन लोग मन ही मन अनेक प्रकार के मनोरथ करने लगे। इस प्रकार याचकों के मनोरथ पूर्ण करते हुए, अवसर योग्य उत्सव करते हुए, पवन के अनुकूल होने पर हम सब यात्रीगण जहाजों में जाकर बैठ गये। [१५] पश्चात् जहाजों के लंगर उठाये गये और उन पर पाल चढ़ाये गये । जहाज एक के बाद एक श्रेणीबद्ध चलने लगे । चालक बराबर ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने लगे। इस प्रकार हमारे जहाज मार्ग पर चल पड़े। मन के अनुकूल पवन भी चल रहा था । तीव्र पवन के वेग से समुद्र में उठती उत्ताल तरंगों से उद्वलित बड़े-बड़े मत्स्यों के पूछ के आघात से उत्पन्न भीषण ध्वनि से जलजंतु भयभीत होकर दूर भाग रहे थे । उत्ताल तरंगों के जहाजों से टकराने पर दूर-दूर तक सफेद फैन के पहाड़ दृष्टिगोचर हो रहे थे और कछुए आदि अनेक प्राणी नष्ट हो रहे थे। ऐसे मार्ग पर हमारे विशाल जहाजों का बेड़ा चलने लगा। अति विस्तृत महासमुद्र में हमारे जहाज आगे बढ़े। बीच-बीच में अनेक छोटी-बड़ी घटनाएं होती रहीं और अन्त में हम सभी थोड़े समय बाद सकुशल रत्नों से परिपूर्ण रत्नद्वीप पर आ पहुँचे । हम सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए। यात्रा सकुशल समाप्त हुई इसलिये हमने अपने आपको भाग्यशाली माना। व्यापारी जहाजों से उतरे। जो-जो वस्तुए दिखाने योग्य थीं उन्हें साथ लिया। वहाँ के राजा से मिलकर उन्हें नजराना (भेंट) अर्पित किया। राजा ने भी हमारे प्रति प्रेम प्रदर्शित किया। कर चुकाया गया और बिक्री की वस्तुओं की गिनती की गई। व्यापारी एक दूसरे को हाथ देने लगे (रुमाल ढक कर अंगुलियों के इशारे से भाव तय करने का एक तरीका)। सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुसार वस्तुए (माल) बेचीं, उसके बदले में अपने देश ले जाने योग्य वस्तुए खरीद कर भरी, लोगों को इनाम दिये । तदनन्तर मेरे साथ आये हुए दूसरे व्यापारी तो वापस अपने देश जाने के लिये तैयार हुए और चले भी गये। परन्तु मुझे तो मेरे मित्र सागर ने प्रेरित करते हुए कहा - 'मित्र ! जिस देश में नीम के पत्तों के बदले रत्न मिलते हों ऐसे देश को छोड़कर शीघ्रता से वापस क्यों लौट रहा है ?' [१६] मेरे मित्र के परामर्श से मैंने वहीं दुकान खोल दी और रत्न खरीदने का व्यापार प्रारम्भ कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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