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उपमिति भव प्रपंच कथा
बालिग होने के पश्चात् पूर्वजों द्वारा अर्जित धन का उपभोग तो बहुत ही शर्मनाक और तिरस्कार योग्य है । पिताजी ! यदि इस कुल परम्परागत धन का ही उपभोग किया जाता रहे तो* वह कितने दिन चलेगा ? समुद्र में से एक-एक बूंद पानी निकालने पर भी यदि उसमें नया पानी नहीं डाला जाय तो एक न एक दिन वह भी खाली हो जाता है । अर्थात् उपार्जन के बिना तो कुबेर का भण्डार भी खाली हो सकता है, तब फिर अपनी पूंजी की तो गिनती ही क्या है ? अतः हे पिताजी ! मुझे धनोपार्जन करने की जो प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई है, उत्साह जागृत हुआ है उसे प्राप भंग कर मुझे निरुत्साहित न करें और मेरे वियोग को सहन करने की शक्ति स्वयं में जागृत करें। पिताजी ! मेरे मन में जो बात है, वह मैं आपको स्पष्टतः बता देना चाहता हूँ । बात यह है कि परदेश जाकर अपने भुजबल से जब तक लक्ष्मी पैदा न करू तब तक मेरे मन को शान्ति नहीं मिल सकती, मैं सुख की साँस नहीं ले सकता । अतः मुझे तो किसी भी प्रकार से परदेश जाना ही है, मैं यह बात अपने मन में निश्चित कर चुका हूँ । फिर आप मेरे जाने में अड़चन क्यों पैदा कर रहे हैं ? मुझे तो किसी भी प्रकार जाना ही है । [ ३२-३७ ]
मेरे पिताजी ने देखा कि पुत्र ने और वह किसी भी प्रकार रुकेगा नहीं । उन्होंने विचार कर कहा; किन्तु कहते हुए और आँखों में आँसू झलक आये । [३८]
हरिशेखर - पुत्र ! यदि तूने मन में ऐसा ही दृढ़ निश्चय कर लिया है और तू रुक नहीं सकता तो स्वकीय विचारानुसार अपने मनोरथ (अभिलाषा) को पूर्ण कर । [ ३६ ] किन्तु, मेरी इतनी सी बात ध्यान में रखना कि तेरा लालन-पालन सुखावस्था में हुआ है, तू प्रकृति से बहुत ही सीधा है । परदेश दूर है और मार्ग बहुत खतरनाक है | लोग कुटिल हृदय एवं वक्र- प्रकृति के होते हैं, स्त्रियाँ पुरुषों को ठगने और रिझाने की कला में कुशल होती हैं, नीच और दुर्जन पुरुष अधिक होते हैं और सज्जन पुरुष तो भाग्य से ही कहीं मिलते हैं । धूर्त लोग अनेक प्रकार के प्रयोग करने में चतुर होते हैं, व्यापारी कपटी होते हैं, ऋयाणक आदि पदार्थों की रक्षा करने में बहुत कठिनाइयाँ प्राती हैं, नवयौवन अनेक प्रकार के विकारों का घर होता है, स्वीकृत कार्य-पद्धति का प्रतिफल जानना दुःशक्य होता है, पाप अथवा यमनर्थ करवाने के लिये सर्वदा उद्यत रहता है और बिना अपराध ही क्रोधित होने वाले चोर एवं लुच्चे- लफंगे निष्कारण ही उत्पीड़ित करने वाले होते हैं । अतएव जब जैसा प्रसंग प्राये वैसा ही कभी पण्डित और कभी मूर्ख बन जाना । कभी उदार और कभी कठोर, कभी दयालु और कभी निर्दय, कभी वीर तो कभी डरपोक, कभी दानवीर तो कभी कंजूस, कभी बकवृत्ति के समान मौन तो कभी चतुर वक्ता बन
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परदेश जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। अधिक खींचने से बात टूट जायेगी, अतः स्नेह से उनका हृदय गद्गद हो गया
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