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________________ प्रस्ताव ६ : धनशेखर और सागर की मैत्री १२१ समस्त विश्व प्रतिष्ठित/समाहित है। यदि आप गहराई से परीक्षण करके देखेंगे तो मालूम होगा कि वस्तुतः विश्व में धनहीन व्यक्ति तृण के समान, राख के ढेर के समान, शरीर के मैल के समान या धूल के समान है । अथवा यह कह सकते हैं कि धन के बिना वह कुछ भी नहीं है, अकिंचकर है। इस संसार में राजा, देव या इन्द्र भी धन के चमत्कार से ही बनते हैं। पुरुषत्व एक समान होने पर भी एक दाता और एक याचक, एक स्वामी और एक सेवक ग्रादि जो अन्तर दिखाई देते हैं वे सब धन के ही चमत्कार हैं, माया के ही नाटक हैं । इस सब का रहस्य यही है कि मनुष्य को कैसे भी प्रयत्नों द्वारा इस भव में धन एकत्रित करना चाहिये, अन्यथा उसका मनुष्य जन्म ही निरर्थक है, ऐसा समझना चाहिये। [१६-२४] इस बात को ध्यान में रखकर चाहे अपने घर में अपने पूर्वजों द्वारा कितना ही धन अजित किया हुआ क्यों न हो, फिर भी मुझे स्वयं अधिक धनार्जन करना ही चाहिये। जब तक मैं अपने स्वयं के हाथों से जगमगाते रत्न और हीरे-माणक के ढेर पैदा कर अपने घर में संग्रह नहीं करूं तब तक मैं सुख से कैसे बैठ सकता हूँ? मेरे मन को शान्ति कैसे हो सकती है ? अतः अब मुझे किसी दूर-देशान्तरों में जाकर सब प्रकार का प्रयत्न करना चाहिये। चाहे वह प्रयत्न/कर्म प्रशंसनीय हो या निन्दनीय, किन्तु किसी भी प्रकार स्वयं अपने हाथों से धन पैदा कर मुझे अपना घर रत्नों के ढेर से भरना ही चाहिये । [२५-२७] हे अगृहीतसंकेता ! इस प्रकार मित्र सागर (लोभ) की तरंगों से तरंगित होते हुए व्याकुल होकर एक दिन मैं अपने पिताजी के पास गया [२८] और उनसे निवेदन कियाधनशेखर का विदेश-गमन - मैं (धनशेखर)--पिताजी ! मुझे धनोपार्जन हेतु परदेश जाने की प्रबल इच्छा हो रही है। मेरा विचार है कि मैं परदेश जाकर अपनी शक्ति का स्फुरण करूँ, मेरे पुरुषार्थ को बतलाऊँ । अतः आप मुझे विदेश-गमन की आज्ञा दीजिये । [२६] हरिशेखर---पुत्र ! अपने पास अपने पूर्वजों द्वारा एकत्रित इतना प्रभूत धन है कि तू कितना भी विलास कर, उपभोग कर, दान दे, खर्च कर, फिर भी अपनी कुल-परम्परागत पूजी कम नहीं होगी। हे वत्स ! उसमें से तू अपनी इच्छानुसार खर्च कर या उसकी व्यवस्था कर, पर परदेश जाने की बात मत कर । तेरे बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता । [३०-३१] ____ मैं (धनशेखर)-- पिताजी ! पूर्व-पुरुषों द्वारा अजित लक्ष्मी का उपभोग करने में तो मनुष्य को लज्जा आनी चाहिये । मुझे तो इसमें नवीनता लगती है कि ऐसा करते हुए लोगों को शर्म क्यों नहीं आती ? जैसे बच्चे बचपन में माता का स्तन-पान करते हैं वैसे ही मूर्ख लोग पूर्वजों द्वारा अजित धन का उपभोग करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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