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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा हरिशेखर सेठ की बन्धुमती नामक एक अत्यन्त प्रिय पत्नी थी । वह आर्य कुल में उत्पन्न, लावण्य और अमृत के कुण्ड के समान परम पवित्र और हरिशेखर के हृदय में बसी हुई प्रेममूर्ति जैसी ही थी । बन्धुमती ऐसी लगती थी मानो सौन्दर्य का भी सौन्दर्य हो, लक्ष्मी की साक्षात् मूर्ति हो और उत्तम शीलव्रत एवं सदाचार का तो मानो प्रावास स्थान ही हो, ऐसी पवित्र थी । वह पतिभक्ति में तो साक्षात् मन्दिर जैसी लगती थी । [ ६-१० ] १२० गृहीत संकेता ! मेरी आन्तरिक पत्नी भवितव्यता ने अब मुझे एक नयी गुटिका दी जिससे मैंने बन्धुमती की कुक्षि में प्रवेश किया। माता की कुक्षि रूप यन्त्र में अनेक प्रकार के कष्ट भोगने के बाद जब मेरा समय परिपूर्ण हुआ तो मैं बाहर आया और मुझे ऐसा लगा मानो मैं कोई नरक का जीव था और अब उस नरक से बाहर आ गया हूँ । मेरे प्रान्तरिक मित्र पुण्योदय और सागर (लोभ) भी मेरे साथ ही इस संसार में आये । [ ११-१२] बन्धुमती पुत्र जन्म से अत्यन्त प्रसन्न हुई । हरिशेखर भी प्रति प्रमुदित हुप्रा और उन्होंने धूमधाम से हर्षोल्लास पूर्वक पुत्र - जन्म महोत्सव मनाया । मेरे जन्म को १२ दिन होने पर मेरे माता-पिता ने विशाल महोत्सव पूर्वक मेरा नामकरण किया और मेरा नाम धनशेखर रखा । मेरे अन्तरंग मित्र पुण्योदय और सागर भी मेरे शरीर में समाये हुए मेरे साथ ही उत्पन्न हुए, किन्तु मेरे माता-पिता को उनके सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं थी; क्योंकि वे मेरे आन्तरिक मित्र थे और मेरे शरीर में ही समाये हुए रहते थे । हे भद्रे ! इस प्रकार पुण्योदय और सागर के साथ सुखपूर्वक वर्धित होता हुआ * मैं क्रमशः कामदेव के मन्दिर के समान युवावस्था को प्राप्त हुआ । तदनन्तर मुझे किसी कलाचार्य के पास भेजा गया, जिनके पास रहकर मैंने धर्मकला के अतिरिक्त सभी कलाओं का अध्ययन किया । [१३-१७] सागर (लोभ) की महिमा जैसे-जैसे मैं बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे ही मेरे मित्र सागर (लोभ) के भी हौंसले बढ़ रहे थे । अब सागर मेरे मन में अपने शक्ति-पराक्रम से प्रतिक्षण अनेक प्रकार की विचार-तरंगें उत्पन्न कर रहा था । जैसे समुद्र में पवन प्रेरित प्रतिक्षण लहरें उठती हैं वैसे ही मेरे मन में मेरे मित्र सागर की प्रेरणा से अनेक विचारतरंगे उठ रही थीं । कैसी-कैसी तरंगे उठ रही थीं ? इसका किञ्चित् दिग्दर्शन प्रस्तुत है । [१८] इस जगत् में धन ही वास्तविक सार है, धन ही वास्तविक सुख का स्थान है, लोग धन की ही प्रशंसा करते हैं, धन के ही अधिकाधिक गुण गाये जाते हैं, धन ही विश्ववन्द्य है, धन ही सर्वोत्तम धन ही परमात्मा है और धन में ही तत्त्व है, * पृष्ठ ५५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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