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१. धनशेखर और सागर की मैत्री
प्रानन्दनगर : राजा-रानी
*इस मनुष्य लोक के बहिरंग प्रदेश में एक प्रानन्द नामक विशाल नगर था। इस नगर में सतत आनन्द ही आनन्द रहता, दोष तो इससे कोसों दूर रहते । इस आनन्द नगर में निवास करने वाले मनुष्य अनेक प्रकार के विलास, उल्लास, रूपलावण्य और लीलाओं से देवताओं के साथ स्पर्धा करते थे, अर्थात देवसुखों के भोक्ता थे। मात्र उनके पलक झपकते थे, जिससे प्रतीत होता था कि वे मनुष्य हैं देव नहीं, क्योंकि देवताओं के पलक नहीं झपकते । इस नगर की स्त्रियाँ अपलक दृष्टि से पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं, पर में अाँख से कोई संकेत नहीं करती थीं, अतः ऐसा ज्ञात हो रहा था मानो इन्होंने देवांगनाओं का आकार धारण कर रखा हो। यहाँ के निवासी चित्र-विचित्र वस्त्र एवं रत्नाभूषणों की किरणों से दैदीप्यमान होकर ऐसे सुन्दर लग रहे थे मानो इन्द्रधनुष की प्रत्यंचा पर आकाश का एक भाग ही सुशोभित हो रहा हो । सारांश यह है कि नगर-निवासी सुखी थे, नारियाँ सर्वांगसुन्दरियाँ थीं और उनके रत्नाभूषण यह बता रहे थे कि वे सुखी और समृद्ध हैं। [१-४]
इस आनन्द नगर में लोकविश्रत केसरी नामक महाराजा राज्य करते थे। शत्रुओं के विशाल हाथियों के कुंभ को विदीर्ण कर, संसार के बड़े भाग को उत्साह एवं उल्लास पूर्वक जीतकर अपने अधीन रखने में वे चतुर थे। इस राजा के अनेक सुन्दरी-वृन्दों के मध्य में अपने गुरगों से जयपताका प्राप्त करने वाली अर्थात् सुन्दर नारियों में सर्वश्रेष्ठ, कमल-पत्र जैसे नयन वाली, पतिपरायणा जयसुन्दरी नामक महारानी थी। [५-६] धनशेखर का जन्म
इस नगर में एक हरिशेखर नामक व्यापारी रहता था । वह धनवान, नगर का आधारस्तम्भ और राजा केशरी का प्रिय पात्र था। यह हरिशेखर अपने दानगुण से जनसमूह में याचक-वृन्द रूपी धान्य में श्रावण के बादल जैसा प्रसिद्ध हो रहा था, अर्थात् जैसे बादल वर्षा कर धरती में बोये अनाज को कई गुणा बढ़ा देता है वैसे ही वह अर्थिजनों को दान देकर उन्हें अपना बना लेता था। वह अपने उत्तम गुरगों से अपने मित्रों को प्रफुल्लित करता था जैसे सूर्य कमल-वन को विकसित करता है । अर्थात् सेठ जैसा धनवान था वैसा ही उत्तम गुणवान भी था। [७-८]
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