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________________ प्रस्ताव : ६ धनशेखर और सागर की मैत्री १२३ जाना और सर्वदा क्षीरसमुद्र के समान अगाध गाम्भीर्य और शान्त बुद्धि वाला बनकर रहना, ताकि कोई भी मनुष्य तेरा रहस्य न जान सके। परदेश में तू ऐसा ही व्यवहार करना, यही तुझे मेरी शिक्षा है। ___ मैं (धनशेखर)--- पिताजी ! आपकी बड़ी कृपा है जो आपने मुझे इतनी सुन्दर व्यावहारिक शिक्षा दी है। अब आप मेरी बुद्धि और पुरुषार्थ की महत्ता देखियेगा। पिताजी ! मैं यहाँ से एक रुपया भी लेकर नहीं जाऊंगा। आपकी पूजी में से मैं एक फटी कौड़ी भी साथ नहीं ले जाऊंगा । मैं केवल मेरा पुरुषार्थ ही अपने साथ लेकर जाऊंगा। यदि मैं इस पुरुषार्थ के बल पर ही धन एकत्रित कर, वापस घर लौटकर आऊं तब ही आप निःसंशय समझे कि मैं आपका असली पुत्र हूँ और आपने जो मेरा नाम धनशेखर रखा है वह उचित एवं सार्थक है । यदि मैं धनोपार्जन न कर वापस न लौट सका तो आप समझ लेवें कि आपका पुत्र परदेश में मर गया है, अतः आप जलांजलि प्रदान करदें । कहा भी है : साथियों, धन, व्यापार की वस्तुएं, सहयोगियों आदि के बल पर तो स्त्री भी पैसा पैदा कर सकती है। धन के साधनों से धन प्राप्त करने में क्या विशेषता है ? अच्छे संयोगों में तरुण व्यक्ति अर्थ-संचय कर सके इसमें क्या नवीनता है ? पिताजी ? मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि पूर्वोक्त किसी भी प्रकार की विशेष सामग्री से रहित होकर भी मैं अपने पुरुषार्थ के बल पर आपका घर रत्नों के भण्डार से भर दूंगा। [४०-४३] इस प्रकार कह कर मैंने अपने पिताजी के चरण छुए। उस समय निकट में खड़ी हुई मेरी माता बन्धुमती पुत्र-स्नेह से आँखों से आँसू टपकाती हुई यह सब बातें सुन रही थी, मैंने उनके भी चरण छुए। मां-बाप रोते रहे और मैं दृढ निश्चयी होकर एकदम पहने हुए कपड़ों से ही घर से बाहर निकल गया। मेरे शरीर में अन्तहित* मेरे मित्र सागर और पुण्योदय मेरे साथ ही थे । [४४-४५] ___जब मैं बाहर निकला तब कुछ धैर्य धारण कर मेरे पिता ने रोती हुई मेरी माता बन्धुमती से कहा-प्रिये ! रुदन मत कर । यह तो हर्ष का प्रसंग है, क्योंकि जो स्त्री, प्रमादी, भाग्य को मानने वाला, साहस-शक्तिरहित, उत्साहरहित, निर्वीर्य पुरुषार्थहीन जैसे पुत्र को जन्म दे वह रोये तब तो बात अलग है, पर तूने तो ऐसे पुत्र को जन्म दिया है जो धीर, साहसी, कुलभूषण और पूर्ण उत्साही है, अतः तेरे रुदन करने या दुःखी होने का तो कोई कारण ही नहीं है । अपना लड़का व्यापार-धन्धे में लग जाय, यह तो बहुत अच्छी बात है । यह तो अपना गुरण ही है कि अपना प्रियपुत्र व्यवसाय-परायण हुआ है और व्यापार हेतु ही परदेश जा रहा है, अतः अब तू विषाद का त्याग कर । [४६-४८] * पृष्ठ ५५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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