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________________ १०० उपमिति-भव-प्रपंच कथा को तैयार होने की आज्ञा दे दी । सम्पूर्ण सेना सज्जित होकर चितवृत्ति अटवी के किनारे पर आकर युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गई। यहाँ इन दोनों महामोह और चारित्रधर्मराज का विस्मयकारी युद्ध हुआ। [५८२--५८५] चारित्रधर्मराज और मोहराज का युद्ध एक अोर चारित्रधर्मराज का अनुसरण करने वाले राजाओं के समूह और उनके करोड़ों योद्धाओं के शस्त्रों से निर्गत विस्तृत प्रकाश-जाल चारों ओर फैले अन्धकार का नाश कर रहा था, तो दूसरी ओर दुष्टाभिसन्धि आदि महामोहराजा के प्रचण्ड उग्र/भयंकर राजाओं की रणभेरी बज रही थी और उनके काले शरीरों की प्रभा से चारों ओर अन्धकार पटल फैल रहा था जिससे ज्ञान रूपी सूर्य का जो प्रकाश आ रहा था वह आच्छादित हो रहा था ।* दोनों सेनाओं का भयंकर युद्ध होने लगा जिससे कायर मनुष्यों के मन में मृत्यु का महा भय उत्पन्न होने लगा। शस्त्रों और युद्ध के वाद्यों की ध्वनि से संसार में संचरण करने वाले जीवों को त्रास हो रहा था और इस महायुद्ध को देखने की लालसा से विशाल संख्या में विद्याधर और विद्यासिद्ध आ गये थे। इसी भीषण संग्राम में महामोह राजा के योद्धा अपने दुश्मनों को पराजित करते हुए आगे बढ़ रहे थे। [५८६] चारित्रधर्मराज की धर्म-सेना शत्र के अनेक प्रकार के भयंकर शस्त्रों से मार खा रही थी। उनके हाथी, घोड़े, रथ आदि के दल पराजित हो रहे थे और शत्रु की भयंकर गर्जना सुन उनकी सम्पूर्ण सेना काँप उठी थी। [५८७] हे पिताजी ! अन्त में इस युद्ध में चारित्रधर्मराज पर बलशाली महामोह राजा की विजय हुई । चारित्रधर्मराज की सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई और योद्धागण भाग कर अपने स्थानों में छुप गये । महामोह के योद्धा जयनाद का कोलाहल करते हुए शत्रुओं के पीछे भागे और उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। युद्धजय के पश्चात् महामोह नरेन्द्र का राज्य चारों तरफ फैल गया और चारित्रधर्मराज घेरे के बीच में घिर गये। [५८८-५६०] पिताजी ! उस समय मौसी ने पूछा- क्यों वत्स ! युद्ध देखा ? अब तो तुम्हारा कुतूहल शान्त हुआ ? उत्तर में मैंने कहा-हाँ मौसी ! आपकी कृपा से मेरी जिज्ञासा पूर्ण हई। मौसी ! अब मुझे यह जानने की अभिलाषा है कि इस युद्ध का मूल कारण क्या है ? कृपया उसे बतला दें। [५६१-५६२] संघर्ष का मूल कारण मार्गानुसारिता मौसी-वत्स ! जब यह महायुद्ध चल रहा था तब तूने महाराजा रागकेसरी के आगे युद्धनिपुण मंत्री विषयाभिलाष को देखा होगा ? पहले * पृष्ठ ५३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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