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________________ प्रस्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध एक बार इस मंत्री ने संसार को अपने वश में करने की इच्छा से अपने पाँच कर्मचारी कहीं भेजे थे। चारित्रधर्मराज के तन्त्रपाल संतोष ने इन पाँचों को खेलखेल में ही पराजित कर दिया था। हे पुत्र ! तभी से दोनों पक्षों में परस्पर विरोध पैदा हो गया, जिसके परिणामस्वरूप अभी ऐसा महायुद्ध अन्तरंग राजारों में हुआ। यह सब आन्तरिक राजाओं की आन्तरिक खटपट का परिणाम है। [५६३-५६६] पिताजी ! जब मैंने मौसी से पूछा कि इन पाँच कर्मचारियों के नाम क्या हैं ? ये पांचों संसार को किस प्रकार वश में कर सकते हैं ? तब मौसी ने कहा कि, वत्स ! इनके नाम स्पर्श, रसना, प्राण, दृष्टि और श्रोत्र हैं। ये स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द पहले तो प्राणी को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं और उसके पश्चात् वे तीनों जगत् को अपने वश में कर लेते हैं। इन पाँचों में से प्रत्येक इतना प्रबल शक्ति-सम्पन्न कि वह अकेला ही संसार को वश में कर सकता है। यदि ये पाँचों ही सम्मिलित होकर संसार को वश में कर लें, तो इसमें बड़ी बात ही क्या है ? [५६७-५६८]] विचार का स्वदेश में प्रत्यागमन तदनन्तर मैंने मौसी से कहा -माताजी ! देश-दर्शन और भ्रमण का मेरा कौतूहल पूर्ण हो गया है। आपकी कृपा से मैंने थोड़े समय में ही बहुत कुछ देख लिया है । अब अपने पूज्य पिताजी के पास शीघ्र ही जाऊँगा। [५६६] मार्गानुसारिता ने कहा कि -- वत्स ! इन लोगों का व्यवहार और चेष्टायें तुमने देख ही ली हैं, अब तुम जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ही आ रही हूँ। पिताजी ! इस प्रकार प्रयोजन का निश्चय कर वहाँ से सीधा मैं यहाँ आया हूँ।* मुझे आपसे केवल यही निवेदन करना है कि आपका मित्र घ्राण अच्छा व्यक्ति नहीं है । यह भोले लोगों को ठगने वाला, उन्हें त्रस्त करने वाला और संसार में भटकाने वाला है। रागकेसरी के मन्त्री ने मनुष्यों को त्रस्त और विडम्बित करने के लिये जिन पाँच अनुचरों को संसार में भेजा है, उन्हीं में से तीसरा यह घ्राण है। [६००-६०२] बुध का निर्णय विचार कुमार अपने पिता बुधराज के समक्ष उपरोक्त वृत्तान्त सुना ही रहा था कि मार्गानुसारिता वहाँ आ पहुँची और उसने बुध नरेन्द्र के सम्मुख विचार के कथन का समर्थन किया, फलस्वरूप बुध ने घ्राण का त्याग करने का निश्चय कर लिया। [६०३-६०४] मन्द की दशा इधर दूसरी ओर मन्द कुमार भुजंगता की संगति में पड़कर घ्राण मित्र के पालन-पोषण में सदा उद्यत रहने लगा। वह उसके लिये उत्तमोत्तम सुगन्धित द्रव्य * पृष्ठ ५४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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