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________________ प्रस्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध ६६ बिठाया गया। परस्पर कुशल समाचार पूछने के बाद अदम्य साहसी दूत ने उदार बुद्धि से क्रोध को शांत करने के लक्ष्य से कहा :--[५६४-५६८] दूत का संदेश ___इस चित्तवृत्ति अटवी का अधिष्ठाता और स्वामी तो संसारी जीव ही है, इसलिये वही इसका मूल नायक है। यह संदेहरहित है कि बाह्य और अंतरंग सभी संसारी राजाओं का* और उनके ग्रामों एवं नगरों का अधिपति भी वही है । यही कारण है कि आप हम और अन्य कर्म-परिणाम आदि अंतरंग राजा तो संसारी जीव के किंकर हैं। ऐसी परिस्थिति में जबकि हम सब का राज्य एक ही है और हमारे स्वामी भी एक ही संसारी जीव हैं तब परस्पर में विरोध कैसा ? शक्ति संपन्न और स्वामिभक्त सेवक परस्पर मिलकर भाई-बन्धुओं की तरह रहते हैं। अपने स्वामी का हित चाहने वाले सेवक आपस में लड़-भिड़कर अपने ही पक्ष का नाश करने वाला कोई कार्य नहीं करते । अतएव हे राजन् ! आज के पश्चात हम दोनों का प्रेम सदा के लिये बना रहे, हमारी प्रीति और आनन्द में सतत वृद्धि हो तभी हमारे स्वामी संसारी जीव की वास्तविक सेवा हो सकेगी। [५६६-५७४] दूत को भर्त्सना सत्य नामक दूत की स्पष्ट बात सुनकर मदोन्मत्त मोहराजा की सभा अत्यधिक क्षुब्ध हो गई। वहाँ उपस्थित राजा और योद्धा अपने होठ काटने लगे, उनके शरीर लाल-पीले हो गये, जमीन पर पैर पटकने लगे और सभी की बुद्धि क्रोध से अन्धी हो गई । सत्य दूत को स्पष्टोक्ति उन्हें अच्छी नहीं लगी, यह जताने के लिये वे सभी एक साथ बोल पड़े.--"अरे दुष्ट ! मूर्ख ! अरे दुरात्मा ! तुझे किसने ऐसी शिक्षा दी है कि संसारी जीव हमारा स्वामी है, हम तुम उसके सेवक हैं तथा हम और तुम सम्बन्धी हैं। तू ऐसी कपोल कल्पित बातें बनाता है ! तेरे पक्ष वाले सब याद रखें कि तुम सब नराधम पाताल में चले जाओ तो भी हम नहीं छोड़ेंगे। अरे अधम ! तू क्या बोला ? संसारी जीव हमारा स्वामी ! और तुम लोग हमारे सम्बन्धी ! अरे ! बहुत अच्छा सम्बन्ध जोड़ा ! धन्य है तेरे वचनों और गुणों को ! तू अपनी भलाई चाहता है तो अपने इष्टदेव का स्मरण कर और शीघ्र ही उल्टे पैरों यहाँ से भाग जा। तुम लोगों की शान्ति करने के लिये हम भी तुम्हारे पीछेपीछे ही पा रहे हैं। इस प्रकार कहते हुए वे परस्पर तालियाँ पीटते, हँसते और निकृष्ट वचनों से दूत की कदर्थना करने लगे। [५७५-५८१] उसी समय उन क्रोधान्ध शत्रु राजानों ने कवच धारण कर, अपने शस्त्रास्त्र धारण कर महामोह के साथ युद्ध के लिये प्रस्थान कर दिया। इधर सत्य दूत ने भी वापस आकर चारित्रधर्मराज को सब परिस्थिति से अवगत कराया । जब उन्हें ज्ञात हुआ कि महामोह की पूरी सेना चढ़कर पा रही है, तब उन्होंने भी अपनी सेना * पृष्ठ ५३८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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