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________________ १८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अवसर की अपेक्षा करेंगे और देखेंगे कि उसे हमारी बात रुचिकर प्रतीत होने लगी है तभी महाराजा उसे हमारी पहचान करायेंगे। उस समय किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होने से संसारी जीव को वह बात हितकारी लगेगी। फलस्वरूप वह हमको निर्मल दृष्टि से देखेगा और हमारी बात को प्रसन्नता से स्वीकार करेगा। सेनापति जी ! तभी हम अपने शत्रु को समूल नष्ट करने में समर्थ होंगे। अतः मेरे विचार में अभी इस प्रसंग में समय बिताना ही हितकारी है। [५५६] सम्यग्दर्शन--मन्त्री जी ! यदि ऐसा ही है, तो उन दुरात्माओं के पास हमें किसी दूत को भेजना चाहिये जिससे कुछ नहीं तो वे हमारे लोगों की कदर्थना तो न करें और अपनी मर्यादा को तो न तोड़ें। [५५७] सबोध मंत्री-मेरी राय में तो अभी दूत भेजना भी व्यर्थ है । अभी तो बगुले की तरह इन्द्रियों को संकुचित कर चुपचाप बैठकर समय की प्रतीक्षा करना ही श्रेयस्कर है। [५५८] सम्यग्दर्शन-पुरुषोत्तम ! मेरी समझ में तो भयभीत होकर चुपचाप बैठने का कोई कारण नहीं है। वे पापी कितने भी क्रोधित हों तब भी मेरे जैसे का क्या बिगाड़ सकते हैं ? अथवा, हे मान्यवर ! यदि हमको विग्रह नीति वाले दूत को न भेजना हो तो, समझा कर वास्तविकता का ज्ञान करवाने वाले (सामनीति वाले) दूत को भेजकर उसे कहें कि वह सन्धि की शर्ते उचित रूप में तय करके आवे । इसमें क्या आपत्ति है ? [५५६-५६०] सद्बोध-प्रार्य ! ऐसा न कहिये, क्योंकि जब विपक्षी क्रोध में उन्मत्त हो तब सामनीति नहीं चल सकती, इससे तो संघर्ष की वृद्धि ही होती है । तप्त घी में पानी डालने से वह और भभक उठता है, यह संशय-रहित है। मान्यवर ! यदि आपकी इच्छा हो तो एक बार दूत भेजकर आपके कौतुहल को भी पूर्ण कर देते हैं, पर उसका वही परिणाम आयेगा जो मैं कह रहा हूँ। महाराज की इच्छा भी दूत भेजने की हो तो एक दूत भेज दिया जाय और शत्रुओं की भावना को भली प्रकार समझ कर तदनुसार समयोचित कार्य किया जाय । [५६१-५६३] दूत-प्रेषण सद्बोध मंत्री की अन्तिम बात का महाराज चारित्रधर्मराज ने भी अनुमोदन किया, अतः सत्य नामक एक दूत को शत्रु-सेना की तरफ भेजा। पिताजी ! उस समय मेरी असीम जिज्ञासा को देखकर मेरी मौसी मार्गानुसारिता प्रच्छन्न रूप से दूत का अनुसरण करती हुई मुझे साथ-साथ ले गई । अन्त में हम महामोह राजा की सेना के निकट पहुचे। मैंने वहाँ देखा कि प्रमत्तता नदी के किनारे चित्तविक्षेप नामक बड़े मण्डप के सभास्थल में सिंहासन पर महामोह महाराज विराजमान थे। शत्रुओं से खचाखच भरी हई इस राज्यसभा में सत्य नामक दूत ने प्रवेश कर महाराज को प्रणाम किया। उसे एक योग्य आसन पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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