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________________ प्रास्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध । अत: जब तक नामक महात्मा के अधीन हैं और उसी के अधिकार में यह महाटवी है। पर, यह संसारी जीव तो अद्यावधि मेरे जैसे का नाम भी नहीं जानता और महामोह आदि शत्रुनों को अपना प्रगाढ़ मित्र मानता है । अतएव यह निश्चित है कि जिस सैन्य - पक्ष के प्रति संसारी जीव का अधिक पक्षपात ( झुकाव ) होगा उसी की विजय होगी, क्योंकि प्रत्येक परिस्थिति में मूलनायक / वरराजा तो वही उसकी समझ में यह नहीं आये कि हमारी सेना उसका हित करने वाली है तब तक वह हमारे पक्ष में नहीं होगा और जब तक वह हमारे पक्ष में न हो तब तक युद्ध की तैयारी, प्रयाग और विग्रह / युद्ध आदि व्यर्थ हैं । ऐसे समय में तो साम नीति का अवलम्बन कर, गजनिमीलिका की तरह दर्शक बनकर इस स्थिति की उपेक्षा करना ही समुचित है । कार्य की महत्ता का चिन्तन कर विज्ञजन पहले कार्य - सीमा का संकोच भी करते हैं, अर्थात् पीछे भी हटते हैं । जैसे हाथी को मारते समय सिंह पीछे हटकर वेग के साथ सबल आक्रमण करता है । ऐसा करने से पुरुषत्व / पराक्रम का नाश नहीं होता । [ ५३८- ५४६ ] सम्यग्दर्शन - श्रार्य ! यह संसारी जीव हमको पहचानेगा या नहीं ? इसका तो कुछ पता ही नहीं चलता और शत्रु जैसे आज हमें त्रस्त कर रहे हैं वैसे ही भविष्य में भी पुन: पुन: त्रस्त करते रहेंगे । देखिये, जैसे आज अवसर का लाभ उठाकर शत्रुनों ने हमारे योद्धा संयम को घायल किया वैसे ही वे भविष्य में हम सबको भी बार-बार मार-मारकर घायल करते रहेंगे । अतएव इस स्थिति में चुप्पी साधना संगत नहीं है । [५५०-५५१ ] ६७ सद्बोध - आर्य ! इस विषय में शीघ्रता मत करिये । योग्य समय पर ही पग उठाया जा सकता है । आप घबरायें नहीं, क्योंकि यह निश्चित है कि देर-सबेर संसारी जीव हमें अवश्य पहचानेगा । इसका कारण यह है कि कर्मपरिणाम महाराजा जैसे उनके सैन्य ( पक्ष ) में सम्मिलित हैं वैसे ही हमारे सैन्य पक्ष में भी हैं । उनका व्यवहार सर्वदा दोनों पक्षों के साथ प्राय: समान रहता है । इधर संसारी जीव भी कर्मपरिणाम महाराजा की आज्ञानुसार ही समस्त प्रवृत्ति करता है । भविष्य में कभी अवसर देखकर कर्मपरिणाम महाराजा संसारी जीव को हमारी पहचान करायेंगे, उसे बतायेंगे कि हम उसके कितने हितेच्छु हैं, तब संसारी जीव प्रसन्नता से हमारी पूजा करेगा, हमारा सन्मान करेगा और तभी हम शत्रु का निर्दलन करने में समर्थ होंगे । [५५२-५५५ ] आर्य ! किसी समय अवसर देखकर, चिन्तन कर कर्मपरिणाम महाराजा पहले अपनी बड़ी बहिन लोकस्थिति से परामर्श लेंगे, अपनी पत्नी काल-परिणिति को पूछेंगे, अपने सेनापति स्वभाव को कहेंगे, * नियति और यदृच्छा आदि स्वकीय परिजनों को अवगत करेंगे और फिर संसारी जीव की पत्नी भवितव्यता को भी अनुकूल करेंगे । संसारी जीव निर्मल होकर स्थिति समझने योग्य हो गया है, ऐसे ** पृष्ठ ५३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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