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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
नीतिशास्त्र की बातें करना तो पिष्ट-पेषण जैसा ही है, तथापि कुछ विशेष बातें फिर से याद दिलाने की धृष्टता करता हूँ :- [५१६-५२८]
राजनीति में छः गुण, पाँच अंग, तीन शक्ति, तीन उदय और सिद्धि, चार प्रकार की नीति और चार प्रकार की राजविद्या प्रतिपादित की गई है। इस प्रकार की और भी अनेक नीतियाँ नीतिशास्त्र में वर्णित हैं, जिनसे आप दोनों सुपरिचित हैं, अत: उनका वर्णन क्या करना।
छः गुण हैं :- स्थान, यान, सन्धि, विग्रह, संश्रय और द्वधीभाव ।
राजनीति के पाँच अंग हैं-१. उपाय, २. देशकाल का विभाग, ३. सैन्यबल और सम्पत्ति का ज्ञान, ४. आपत्ति का प्रतीकार और ५. कार्यसिद्धि । राजनीतिज्ञ पुरुष इन पाँचों अंगों के पूर्णतया जानकार होते हैं और इन अंगों का सम्यक् प्रकार से चिन्तन करते हैं।
तीन प्रकार की शक्ति कही गई है :-१. उत्साह शक्ति, २. प्रभाव शक्ति, और ३. मंत्र शक्ति । अर्थात मानसिक प्रेरणा, राज्य का प्रभाव और वास्तविक चिन्तन यह तीन प्रकार की शक्ति है।
___इन तीन शक्तियों की प्राप्ति से राज्य रक्षण, प्रभुता और शत्रु-विजय यह तीन प्रकार के उदय होते हैं और स्वर्ण, मित्र तथा भूमि का लाभ होता है । यह तीन प्रकार की सिद्धि कहलाती है ।
राजनीतिज्ञ साम, दाम, भेद और दण्ड इन चार प्रकार की नीतियों का निखिल कार्यों में पर्यालोचन कर प्रवृत्त होते हैं।
राजाओं को चार प्रकार की राजविद्या का ज्ञान अवश्य होना चाहिये । तर्कविद्या, त्रयी (साम, यजु और ऋग् तीन वेदों का ज्ञान), वार्ता (कृषि और इतिहास का ज्ञान) और दण्डनीति। [५२६-५३७]
हे महत्तम ! इस समस्त राजविद्या के श्रीपूज्यपाद और सेनापति जी सम्यक् प्रकार से विशिष्ट ज्ञाता हैं ही, अतः अधिक विवेचन की क्या आवश्यकता है ? मुझे तो केवल यह निवेदन करना है कि कोई व्यक्ति कितने भी शास्त्र जानता हो, पर अपनी अवस्था को ठीक से न समझ सकता हो तो उसका ज्ञान अन्धे के सामने स्वच्छ दर्पण रखने के समान व्यर्थ है ।* जो व्यक्ति असाध्य कार्य को करने का प्रयत्न करता है, किन्तु उस विषय में योग्य विवेक नहीं रखता वह हँसी का पात्र बनता है और समूल नष्ट हो जाता है। तात ! जिस प्रयोजन को स्वीकार किया है उसका मूल पहले ही नष्ट हो चुका है, अतः युद्ध करने का या शत्रु-विजय का यह उत्साह क्या अर्थ रखता है ? कारण स्पष्ट है :- यह भवचक्र, स्वयं हम, वे महामोह आदि शत्रु, कर्मपरिणाम, अपने महाराजा आदि सभी तो संसारी जीव
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