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प्रस्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध
आ गया है । इस प्रसंग में विचार या विलम्ब करने का प्रश्न ही क्या है ? कारण यह है कि अत्यन्त दुष्ट चित्त वाले और नष्ट करने योग्य शत्रुओं द्वारा ऐसा असहनीय अपराध होने पर तो कोई भी स्वाभिमानी अनदेखी कर चुपचाप कैसे बैठ सकता है ? शत्रु से पराजित होकर अपमानित होने से तो वह मर जाय तो श्रेयस्कर है, जल जाय तो अच्छा है, उसका जन्म न लेना ही प्रशस्य है और यदि वह गर्भ में ही गल
तातो च्छा होता। जो प्राणी शत्रुओं से बार-बार मर्दित होकर और धूलि - धूसरित होकर भी स्वस्थ चित्त से चुपचाप बैठा रहे, तो वह प्राणी धूल, तृरण और राख जैसा तुच्छ है, या यों कहें कि वह कुछ भी नहीं है तो ठीक है। यदि किसी राजा का एक भी शत्रु होता है तो वह उसे जीतने की इच्छा रखता है तब जिसके सिर पर अनन्त शत्रु हों वह चुप कैसे बैठ सकता है ? अर्थात् उसके लिये अनदेखी करना लेशमात्र भी योग्य नहीं है । अतः हे महाराज ! आप अपने समस्त शत्रुनों को नष्ट कर, पृथ्वी को निष्कंटक कर फिर निराकुल होकर शान्ति से बैठिये । इस प्रकार अत्यन्त उत्कट वाक्यों द्वारा प्रसंगोचित कार्य करने में अपने विचार प्रदर्शित कर सेनापति सम्यग्दर्शन चुप होकर बैठ गया । [ ५०७ - ५१८ ]
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सद्बोध का राजनीति- चिन्तन
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तदनन्तर चारित्रधर्मराज ने सद्बोध मन्त्री की तरफ अपनी दृष्टि घुमाई और इशारे द्वारा उसे अपना अभिप्राय प्रकट करने का संकेत किया । प्रत्येक घटना के कारणों का पृथक्करण कर गहन चिन्तन के पश्चात् वस्तु तत्त्व के रहस्य को समझने में कुशल मन्त्री इस प्रकार बोला - देव ! विद्वान् सेनापति जी ने आपके समक्ष जो युक्तिसंगत परामर्श दिया है, उसके पश्चात् मेरे जैसे का इस प्रसंग में कुछ बोलना भी उचित नहीं है, फिर भी हे राजेन्द्र ! आप मुझे गौरव प्रदान कर प्रसंगानुसार विचार व्यक्त करने की प्राज्ञा देते हैं, अतः आपकी कृपा और उत्साह से प्रेरित होकर ही मेरी वाणी प्रस्फुटित हो रही है । * सम्यग्दर्शन की ओर लक्ष्य कर मन्त्री ने कहा – सेनापति जी ! आपमें उत्कट तेज है । आपका वाक्चातुर्य पर अधिकार है। आपकी स्वामिभक्ति भी सराहनीय है । हे धीर ! आपने कहा कि स्वाभिमानी व्यक्ति का शत्रुओं द्वारा किये गये पराभव को सहन करना दुःसहनीय है, यह सत्य है । यह भी सत्य है कि शत्रु द्वारा पराभूत प्राणी इस संसार में तुच्छ है । महामोह प्रादि शत्रु दुष्ट हैं, शठ हैं, पापी हैं, नाश करने योग्य हैं, इसमें भी कोई संशय नहीं है । महाराज के अनुचर उनका नाश करने में समर्थ / पराक्रमी हैं, यह भी सत्य है । महाराज के महारथी योद्धाओं की बात छोड़िये, उनकी स्त्रियाँ भी महामोह आदि का नाश करने में सक्षम हैं, तदपि विचक्षण पुरुष योग्य अवसर के बिना कोई भी कार्य प्रारम्भ नहीं करते; क्योंकि नीति और पुरुषार्थ योग्य अवसर के प्राप्त होने पर ही कार्य सिद्ध कर सकते हैं । यद्यपि महाराज और आपके समक्ष
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