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________________ ७२ उपमिति भव प्रपंच कथा संज्ञी कहलाया । तिर्यञ्च गति में भी उसने अनेक कष्ट सहन किये । वह जीव वहाँ पर भयंकर शीत, ताप, क्षुधा और प्यास को सहन करता रहा, उस पर भयंकर ताड़ना और तर्जना पड़ी । परवशता में आत्मा ने वे दुःख और कष्ट सहन किये । नरक तो दुःखों का प्रागार है ही । केशववर्णी ने गोम्मटसार की जीव प्रबोधिनी टीका में स्पष्ट रूप से लिखा है - प्राणियों को दुखित करने वाला, स्वभाव 'से च्युत करने वाला, नरक कर्म है । और, इस कर्म के कारण उत्पन्न होने वाले जीव नारकीय कहलाते हैं । नारकीय जीवों को अत्यधिक दुःख सहन करने पड़ते हैं । भगवती आदि श्रागम साहित्य में वर्णन है कि नारकीय जीवों को अतीव दारुण वेदनायें भोगनी पड़ती हैं । क्षेत्रकृत और देवकृत, दोनों ही प्रकार की नारकीय वेदनायें सहन करनी पड़ती हैं । ये वेदनायें इतनी भयंकर होती हैं कि उन्हें सहन करते समय प्राणी छटपटाता है, करुण क्रन्दन करता है । ये सारी वेदनायें जीव ने एक बार नहीं, अनन्त अनन्त बार भोगी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में कलम के धनी प्राचार्य ने जो वेदना का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, वह बड़ा ही अद्भुत है, अनूठा है । इस जीव की जो यात्रायें विविध योनियों में हुई, उसका मूल कारण, कर्म है । कर्म राजा ने ही जीव को परतन्त्रता की बेड़ियों में बांध रखा है । शुद्धि और अशुद्धि की दृष्टि से संसारी आत्मा के दो भेद हैं- एक भव्यात्मा और दूसरी अभव्यात्मा । जिस आत्मा में मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति है, वह भव्यात्मा है; जैसे जो मूंग सीझने योग्य हैं, उन्हें अग्नि आदि का अनुकूल साधन मिलने पर सीझ जाते हैं । उसी तरह जो आत्मायें मुक्त होने की योग्यता रखती हैं. उन्हें सम्यग् दर्शन आदि निमित्त सामग्री के मिलने पर, वे कर्मों को पूर्ण रूप से नष्ट कर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं । यह शक्ति जिन जीवों में होती हैं - वे भव्यात्मा कहलाते हैं । इसके विपरीत अभव्य आत्मा होती है । वे 'मूंग शैलिक' जो कभी नहीं सीझता, उसी तरह अभव्य जीव को देव, गुरु, धर्म का निमित्त मिलने पर भी, वह मुक्ति को वरण नहीं कर पाता । वह सदा-सर्वदा संसार में ही परिभ्रमण करता है । अध्यात्म की दृष्टि से श्रात्मा के तीन भेद किए गये हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । ये आत्मा के तीन भेद आगम साहित्य में तो नहीं आये हैं, पर ३. (क) नरान् प्राणिनः, कायति यातयति, कदर्थयति, खलीकरोति, बाधत इति नरकं कर्म - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा १४१ तस्यापत्यानि नारकाः । (ख) धवला १ / २ / १/२४ तत्वार्थ वार्तिक २/५०३ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ५५६ (ख) ज्ञानार्णव ६ / २०/६/२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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