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प्रस्तावना
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अण्डर (स्कन्धों के अवयव), आवास (अण्डर के अन्दर रहने वाला भाग), पुलविका (भीतरी भाग) निगोदिया से जीवों का वर्णन किया गया है।
इन पाँच स्थावरों में यह जीव असंख्यात और अनन्त काल तक रहा है । वहाँ पर उसने विविध प्रकार के दारुण कष्ट सहन किये हैं। जैन दर्शन की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है कि उसने इन पाँचों में जीव मानकर उनका विश्लेषण किया है और उन स्थानों पर जीव ने किस-किस प्रकार की यातनाएं सहन की, उसका सजीव चित्रण प्राचार्य सिद्धर्षि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है । जब इस वर्णन को प्रबुद्ध पाठक पढ़ता है तो वह चिन्तन करने के लिए बाध्य हो जाता है कि मेरी आत्मा ने मिथ्यात्व अवस्था में किस प्रकार इस संसार की यात्रा की है, चिरकाल तक कष्टों में झुलसने के पश्चात् अनन्त पुण्यवाणी का पुञ्ज, जब जीवात्मा ने एकत्र किया तब वह एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय बना, स्थावर से त्रस बना। एकेन्द्रिय अवस्था में केवल एक स्पर्शेन्द्रिय थी, उसमें अन्य इन्द्रियों का प्रभाव था। एकेन्द्रिय अवस्था में स्पर्शन, कायबल, पायु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। निगोद तो जीवों का खजाना है। उसमें इतने जीव हैं, जितने अन्य जीव-योनियों में नहीं हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में जो व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि का उल्लेख हुअा है, वह दार्शनिक युग की देन है, प्राचार्य सिद्धर्षि गणी तक यह कल्पना वर्णन की दृष्टि से मूर्तरूप ले चुकी थी। अनेक श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्य उस पर अपनी लेखनी चला चुके थे । इसलिए प्राचार्य सिद्धर्षि ने भी उनका अनुसरण कर व्यवहार राशि एवं अव्यवहार राशि का सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है । यदि पाठक-गरण मूल ग्रन्थ का पारायण करेंगे तो उन्हें ज्ञानवर्द्धक विपुल सामग्री प्राप्त होगी।
हम पूर्व में लिख चुके हैं कि अनन्त पुण्यवाणी के पश्चात् द्वीन्द्रिय अवस्था को, जीव प्राप्त करता है। द्वीन्द्रिय अवस्था में स्पर्शन और रसन्-ये दो इन्द्रियाँ उसे प्राप्त होती हैं। द्वीन्द्रिय अवस्था में चारों प्रकार के कषाय और आहार आदि चारों प्रकार की संज्ञाएं होती हैं। वे आत्माएं सम्मूर्छनज होती हैं । असंज्ञी और नपुंसक होती हैं । पर्याप्ति और अपर्याप्ति के भेद से वे दो प्रकार की होती हैं। जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, और मूलाचार4 में द्वीन्द्रिय जीवों के नामों की सूची दी गई है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय अवस्था को भी इस जीवात्मा ने अनन्त बार प्राप्त किया है। पञ्चेन्द्रिय में वह नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव योनियों को प्राप्त हुआ तथा वहाँ पर उसे मन की भी उपलब्धि हुई जिससे वह
१. धवला १४/५/६/६३ २. जीवाजीवाभिगम, १/२२ ३. प्रज्ञापना १/४४ ४. मूलाचार ५/२८
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