SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा वायुकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से वायुकाय युक्त जीव वायुकायिक एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, धवला और मूलाचार में वायुकाय के जीवों के अनेक भेद प्ररूपित हैं। वनस्पतिकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से वनस्पतिकाय युक्त जीव वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव की अभिधा से अभिहित किये गये हैं। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-'प्रत्येक शरीरी' और 'साधारण शरीरी । जिन वनस्पतिकायिक जीवों का अलग-अलग शरीर होता है--वे प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक शरीर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में एक शरीर में एक जीव रहने वाले को प्रत्येक शरीरी वनस्पति कहा है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित की अपेक्षा से वनस्पतिकायिक जीव के दो भेद किए हैं। इन दोनों में मुख्य अन्तर यही है कि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के आश्रय में अन्य अनेक साधारण जीव रहते हैं, पर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के आश्रित अन्य निगोदिया जीव नहीं रहते10 । उत्तराध्ययन में प्रत्येक शरीरी वनस्पति के बारह प्रकार बताये हैं11 । साधारण शरीर नामकर्म के उदय से जिन अनन्त जीवों का एक ही शरीर होता है, उन्हें साधारण वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं। । साधारण शरीर जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास, उनकी उत्पत्ति, उनके शरीर की निष्पत्ति, अनुग्रह, साधारण ही होते हैं13 । एक जीव की उत्पत्ति से सभी जीवों की उत्पत्ति और एक के मरण से सभी का मरण होने से साधारण शरीरी वनस्पति जीव निगोदिया जीव के नाम से भी जाने जाते हैं14 | निगोदिया जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं । स्कन्ध, - १. उत्तराध्ययन ३६/११६-१२० २. प्रज्ञापना १/२६ धवला १/१/१/४२ ४. मूलाचार ५/१६ ५. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा १८५ षट्खण्डागम १/१/१/४१ ७. धवला १/६/१/४१ ८. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीव तत्त्व प्रदीपिका, १८५ ६ गोम्मटसार, जीव प्रदीपिका टीका, गाथा १८५ ०. गोम्मटसार, जीव प्रदीपिका टीका, गाथा १८६ १. उत्तराध्ययन ३६/६५-६६ २. (क) धवला १३/५/५/१०१ (ख) सर्वार्थसिद्धि, ८/११ ३. षट्खण्डागम १४/५/६/१२२-१२५ ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गाथा १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy