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प्रस्तावना
दो-दो प्रकार के होते हैं । बादर नाम-कर्म के उदय से बादर शरीर जिनके होता है-वे बादर-कायिक जीव कहलाते हैं। बादर-कायिक एक जीव दूसरे मूर्त पदार्थों को रोकता भी है, और उससे स्वयं रुकता भी है। जिन जीवों के सूक्ष्म नाम-कर्म का उदय होता है, उन्हें सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है, और वे सूक्ष्मकायिक जीव कहलाते हैं। सूक्ष्मकायिक जीव न किसी से रुकते हैं, और न अन्य किसी को रोकते हैं, वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं ।
पृथ्वीकायिक जीव वे हैं--जो पृथ्वीकाय नामक नाम-कर्म के उदय से पृथ्वीकाय में समुत्पन्न होते हैं। उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना, मूलाचार और धवला आदि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में पृथ्वीकायिक जीवों की विस्तृत चर्चा है, और उनके विविध भेद-प्रभेद भी बतलाए गए हैं । पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर का आकार मसूर की दाल के सदृश होता है । जलकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से, जलकाय वाले जीव, जलकायिक एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जीवाजीवाभिगम और मूलाचार में ओस, हिम, महिग (कुहरा), हरिद, अणु (ोला), शुद्ध जल, शुद्धोदक और घनोदक की अपेक्षा से जलकायिक जीव आठ प्रकार के बतलाये गये हैं।
अग्निकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से जिन जीवों की अग्निकाय में उत्पत्ति होती है, उन्हें अग्निकायिक एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। उत्तराध्ययन,10 प्रज्ञापना,11 और मूलाचार12 में अग्निकायिक जीवों के अनेक भेद-प्रभेद निर्दिष्ट हैं । सूचिका की नोक की तरह अग्निकायिक जीवों की प्राकृति होती है13 ।
१. धवला १/१/१/४५ २. उत्तराध्ययन ३६/७३-७६
प्रज्ञापना १/८ मूलाचार २०६-२०६ धवला १/१/१/४२
गोम्मटसार जीवकाण्ड, २०१ ७. तत्त्वार्थ वार्तिक 2/१३
जीवाजीवाभिगम सूत्र १/१६ ६. मूलाचार ५/१४ १०. उत्तराध्ययन ३६/११०-१११ ११. प्रज्ञापना १/२३ १२. मूलाचार ५/१५ १३. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा २०१
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