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प्रस्तावना
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प्राचार्य कुन्दकुन्दन, पूज्यपाद, योगेन्दु, शुभचन्द्र आचार्य, स्वामी कार्तिकेय, अमृतचन्द्र, गुणभद्र', अमितगति, देवसेन, और ब्रह्मदेव, प्रभृति मूर्धन्य मनीषियों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उपर्युक्त तीन आत्माओं का उल्लेख किया है। तीन पात्माओं की चर्चा प्राचीन जैन साहित्य में इस रूप में न होकर अन्य रूप में उपलब्ध है। यह सत्य है कि बहिरात्मा और अन्तरात्मा जैसी शब्दावली प्राचारांग सूत्र में प्रयुक्त नहीं है, तो भी, उनका लक्षण और विवेचन वहाँ पर किया गया है । जो आत्माएं बहिर्मुखी हैं, उनके लिए बाल, मंद और मूढ़ शब्द का प्रयोग किया गया है । वे ममता से मुग्ध होकर बाह्य विषयों में रस लेती हैं। जो आत्माएं अन्तर्मुखी हैं, उनके लिए पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी प्रभृति शब्द व्यवहृत हुए हैं। पाप से मुक्त होकर सम्यग्दर्शी होना ही अन्तरात्मा का स्वरूप है। मुक्त आत्मा को आचारांग में विमुक्त, पारगामी, तर्क तथा वाणी से अगम्य बतलाया गया है।
जो प्रात्मा अज्ञान के कारण अपने सही स्वरूप को भूलकर आत्मा से पृथक शरीर, इन्द्रिय, मन, स्त्री, पुरुष, धन आदि पर-पदार्थों में अपनत्व का आरोपण कर उनके भोगों में आसक्त बनी रहती है, वह बहिरात्मा है । बहिरात्मा के भी द्रव्यसग्रह की टीका में तीन भेद किये गये हैं-१. तीव्र बहिरात्मा-प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती आत्मा, २. मध्यम बहिरात्मा-द्वितीय सासादन गुणस्थानवर्ती प्रात्मा, ३. मंद बहिरात्मा-तृतीय मिश्र गुणस्थानवर्ती प्रात्मा । बहिरात्मा मिथ्यात्वी होता है, उसे स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होता । मिथ्यात्व के कारण ही उसकी प्रवृत्ति अशुभ की ओर होती है । तथागत बुद्ध ने भी कहा है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण का कारण है1 । श्रीमद् भगवद् गीता में भी यही भाव इस रूप में व्यक्त किया गया है-रजोगुण से समुद्भव काम ही ज्ञान को प्रावृत्त कर, व्यक्ति को बलात् पाप की १. मोक्ष पाहुड़, गाथा ४ २. समाधि शतक, पद्य ४ ३. (क) परमात्म प्रकाश १/११-१२ (ख) योगसार, ६ ४. ज्ञानार्णव, ३२/५ ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १६२ ६. पुरुषार्थसिद्ध युपाय ७. प्रात्मानुशासन ८. ज्ञानसार, गाथा २६ ६. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४ १०. इसिभासियाई सुत्त, २१/३ ११. अंगुत्तर निकाय १/१७
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