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________________ उपमिति भव प्रपंच कथा अपार शक्ति और महत्ता वाला आपका यह मित्र आपके लिये सुख - सिन्धु का कारण बना | आपका यह मित्र आप पर बहुत स्नेह रखता है । राजा के आदेश से वह इस गुफा में ही रहता है और आप दोनों उसका भरण-पोषण करते हैं । जहाँ-जहाँ आप गये हैं, वहाँ-वहाँ नानाविध सुगन्धित पदार्थों से आप दोनों ने उसका पोषण किया है । एक बार ग्राप दोनों जब मनुजगति में गये तब तो आप लोगों ने उसका विशेष रूप से पोषरण किया। आप दोनों ने ही बड़े स्नेह से मुझ निर्भागिनी भुजंगता को अपने मित्र धारण की परिचारिका / दासी नियुक्त किया था । घ्राण से आप दोनों की मित्रता चिर - समय से है और तभी से मैं भी आपकी सेविका के रूप में लोगों में प्रसिद्ध हूँ । फिर भी आप गज-निमीलिका धारण कर मुझे न पहचानने का अभिनय कर रहे हैं, अतएव मेरे लिये इससे अधिक शोक का क्या कारण हो सकता है ? हे नाथ ! पुरातन काल से चले आ रहे आपके इस मित्र पर कृपा दृष्टि करें और उसके प्रति स्नेह रखकर पुनः उसका पालन-पोषण करें । [ ३६३-४०५] ८८ अपने झूठे स्नेह का इस प्रकार भ्रामक प्रदर्शन करती हुई भुजंगता बुध और मन्द कुमार के पाँवों में गिर पड़ी । बुध कुमार को इस भुजंगता का व्यवहार असुन्दर प्रतीत हुआ और उसे उसके व्यवहार में धूर्तता दिखाई दी तथा उसे लगा कि उसका पैरों में गिरना कृत्रिमता पूर्ण है । कहा भी है :- " कुलवती स्त्रियों के कपोलों पर स्मित हास्य होता है, वे मृदुवारणी में लज्जापूर्वक बोलती हैं और उनकी तरफ निर्निमेष ( एकटक ) देखने पर भी उनमें विकार दृष्टिगोचर नहीं होता । " यह बाला तो बड़ी तेज-तर्रार है, इसके नेत्र विलास से स्फुरित हो रहे हैं और इसकी वाक्पटुता से स्पष्ट लगता है कि यह कोई दुष्टा है, इसमें कोई सन्देह नहीं । महात्मा बुध ने इस प्रकार मन में निश्चित कर उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया । [ ४०६ - ४१० ] मन्द की श्रासक्ति मन्द कुमार को उसके व्यवहार में कोई कृत्रिमता नहीं लगी, अतः चरणों में गिरी हुई उस बाला को हाथ पकड़ कर उठाया तथा प्रेम से विह्वल होकर उससे बोला - हे सुन्दरि ! विषाद को छोड़ । सुमुखि ! जरा धैर्य धारण कर । हे बाले ! तू ने जो कहा वह ठीक ही होगा । हे सुलोचने ! पर सच्ची बात तो यह है कि * मुझे तो कुछ भी याद नहीं है । फिर भी तू ने जो स्नेह प्रदर्शित किया है तथा पुरानी स्मृतियों को प्रत्यक्ष की तरह साकार कर दिया है, अतः अब यह बता कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ताकि मैं तदनुसार ही करूँ । हे भद्रे ! मैं तो तेरा स्नेहक्रीत किंकर हो चुका हूँ । भुजंगता - नाथ ! जैसे प्रापने पूर्वकाल में अपने मित्र घ्राण का पोषण किया वैसे ही अब भी अपने पुराने मित्र का पोषण करें, उसे भुलायें नहीं, यही मेरी प्रार्थना है । पृष्ठ ५२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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