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________________ प्रस्ताव ५ : बुधाचार्य चरित्र ८५ बधाचार्य-राजन ! शास्त्रों की ऐसी आज्ञा है कि साधनों को अपनी आत्मकथा का वर्णन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मकथा का कथन करने से लघुता (तुच्छता) प्राप्त होती है। यदि में अपना चरित्र तुम्हारे समक्ष कहूंगा तो ['अपने मुह मियां मिठु' बनने की कहावत के अनुसार] मुझे भी लोग तुच्छ समझने लगेंगे; क्योंकि स्वचरित्र का वर्णन करने पर यह अनिवार्य है, अतएव आत्म-वर्णन करना योग्य नहीं है। [३५२-३५३] आचार्य देव की बात सुनकर धवल राजा ने पूज्य गुरुदेव के चरण पकड़ लिये और कौतुहल जानने के आवेग में आत्म-कथा सुनाने का बारम्बार आग्रह करने लगे। धवल राजा और सभाजनों का इतना अधिक आग्रह देखकर आचार्य बोले-~-लोगों! तुम्हें मेरा चरित्र सुनने की अत्यधिक जिज्ञासा और कौतूहल है तो लो सुनो ! मैं तुम्हें अपनी आत्मकथा सुनाता हूँ,* ध्यानपूर्वक सुनो। [३५४-३५६] बुध-चरित्र इस लोक में प्रख्यात अनेक घटनाओं से ओत-प्रोत, विस्तृत और अति सुन्दर धरातल नामक एक सुन्दर नगर था। इस नगर में सुप्रसिद्ध प्रभाववाला जगत् का आह्लादकारी कीर्तिमान शुभविपाक नामक राजा राज्य करता था । इस राजा ने अपने प्रताप से समग्र भू-मण्डल पर अधिकार कर रखा था। उसके समग्र अंगोपांगों से अत्यन्त रूपवती जगत्प्रसिद्ध और अतिप्रिय निजसाधुता नाम की रानी थी । अन्यदा समय परिपूर्ण होने पर निजसाधुता देवी की कुक्षि से बुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यह पुत्र लोकविश्रत हुआ; क्योंकि यह गुणों की खान थी और समग्र कला-कौशल का मन्दिर था। क्रमश: यौवनावस्था को प्राप्त होने पर यह कुमार रूपाधिक्य के कारण कामदेव की तरह अत्यधिक आकर्षक बन गया। [३५७-३६१] इस शुभविपाक राजा के एक भाई था जिसका नाम अशुभविपाक था और वह भयंकर, अदर्शनीय और जगत्संतापकारी जनमेजय के सदृश था। इस अशुभविपाक की पत्नी का नाम परिणति था, जो जगत्प्रसिद्ध लोक-संतापकारिणी और अति भयंकर शरीर वाली थी। इनके एक मन्द नामक पुत्र हुआ, जो अति रौद्र प्राकृति वाला था और साक्षात् विष के अंकुर जैसा क्रूर था । वह करोड़ों दोषों का भण्डार और गुणों की छाया से भी दूर था । जैसे-जैसे वह मन्द बड़ा होता गया वैसे-वैसे मन्द मदविह्वल मदोद्धत बनता गया। बुध और मन्द चचेरे भाई होने से उनमें गाढ मैत्री होना स्वाभाविक था। बचपन से ही वे साथ ही पले थे, साथ ही खेलते थे और साथ ही प्रानन्द कल्लोल करते थे। कभी नगर में, कभी उद्यानों में वे क्रीड़ारस-परायण होकर स्वेच्छा से साथ-साथ ही घूमने और खेलने निकल जाते थे। [३६२-३६७] * पृष्ठ ५२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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