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________________ १७. बुधाचार्य-चरित्र बुधाचार्य द्वारा बठरगुरु की कथा * और सारगर्भित उपनय सुनकर धवलराजा हषित हुए और समस्त सभाजन भी अत्यधिक प्रमुदित हुए। इस वास्तविकता को सुनकर उनमें इतना अधिक भक्तिरस उमड़ पड़ा कि उनके कर्म के जाले पतले पड़ गये और उन्होंने हाथ जोड़ कर मस्तक पर लगाते हुए कहा-हे यतीश्वर ! जिस प्राणी के पाप जैसे नाथ हों, भक्तवत्सल हों उसका कौनसा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता? अतएव आप निर्विकल्प चित्त होकर हमें मार्ग-दर्शन दीजिये कि अब हमें क्या करना चाहिये ? जिससे कि हमारी इस दुःख-पूर्ण संसार से मुक्ति हो सके । [३३६-३४२] बुधाचार्य का सदुपदेश बुधाचार्य-भद्रों ! तुम सब लोगों ने बहुत अच्छी बात की है। तुम लोगों की बुद्धि प्रशंसनीय है। मेरे विवेचन को तम लोगों ने भली प्रकार से समझा है। हे श्रेष्ठ मानवों ! आप लोगों ने मेरे वाक्यार्थ को भावार्थ सहित (सरहस्य) समझ लिया है, ऐसा लगता है । अतः हे नरेन्द्र ! मैं मानता हूँ कि सम्प्रति मेरा परिश्रम सफल हुआ है। हे राजन् ! मेरा यही आदेश है कि संसार से मुक्ति के लिये तुम्हें भी वही करना चाहिये जो मैंने किया है। [३४३-३४५] धवल राजा-भगवन् ! आपने क्या किया है ? वह बताने की कृपा करें। बुधाचार्य---- राजेन्द्र ! इस कारागृह जैसे संसार को असार जानकर मैंने संसार से मुक्ति के लिये भागवती दीक्षा को अंगीकार किया है। यदि तुम लोगों को भी मेरे उपदेश से अनन्त दु:खों से परिपूर्ण संसार रूपी कैद खाने से निर्वेद (वैराग्य) हुआ हो तो संसार का सर्वथा उच्छेद करने वाली भागवती दीक्षा को अंगीकार करो। कहावत है कि "धर्म की त्वरित गति है" अर्थात धर्म के कार्यों में तनिक भी विलम्ब नहीं करना चाहिये, अत: हे भव्य लोगों ! तुम्हें भी यह कार्य शीघ्र ही सम्पन्न करना चाहिये। [३४६-३४८] धवल राजा-भगवन् ! आपने जो कर्तव्य निर्दिष्ट किया है वह मेरे मानस में स्थिर हो गया है, किन्तु मुझे एक जिज्ञासा (कौतूहल) उत्पन्न हई है वह शान्त हो ऐसा स्पष्टीकरण करें। हे नाथ ! हमें तो आपने परिश्रम करके प्रतिबोधित किया, किन्तु आपको किसने, कब, कैसे और किस नगर में प्रतिबोधित किया ? अथवा हे भगवन् ! आप स्वयंबद्ध परमेश्वर हैं ? हम सब के हित की इच्छा से हम सब की जिज्ञासा को तृप्त करने की कृपा करें। [३४६-३५१] * पृष्ठ ५२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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