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________________ प्रस्ताव ५ : कथा का उपनय एवं कथा का शेष भाग पहले महामोह आदि धूर्तों और राग-द्वेष आदि चोरों को सचेत करता हुआ चारित्र रूपी वज्रदण्ड के प्रहार से उन्हे पछाड़ देता है । महामोह और राग-द्वेष रूपी चोर धूर्तों का निर्दलन करने पर प्राणी का कुशलकारी प्राशय (भावनायें) विस्तृत होता है, उसके पूर्व में बंधे हुए कर्म क्षय होते हैं, नये कर्मों का बन्ध नहीं होता और अधम व्यवहार के प्रति प्रीति नष्ट हो जाती है। उसका जीव-वीर्य (आन्तरिक तेज) उल्लसित होता है, आत्मा निर्मल बनती है, अत्यधिक अप्रमाद भाव जागृत होता है, झूठे-सच्चे संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाते हैं, समाधिरत्न स्थिर हो जाता है और उसकी संसार-परम्परा घटती जाती है । तत्पश्चात् जब प्राणी स्वयं के चित्तरूप कमरे के प्रावरण रूप जो दरवाजे बन्द थे उन्हें वह खोलता है तब उस कमरे में बंद स्वयं के स्वाभाविक गुण रूपी कुटम्बीजन प्रकट होते हैं। अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश से अपनी प्रात्मऋद्धि का अवलोकन कर प्राणी को निर्बाध आनन्द की प्राप्ति होती है, सच्ची आत्मजागृति होती है और मन में प्रमोद होता है। फलस्वरूप वह दुःख से भरपूर भवग्राम (संसार) को छोड़ देने का विचार करता है। संसार त्याग की इच्छा होने से उसकी विषय मृग-तृष्णा शान्त हो जाती है, अन्तरात्मा रुक्ष हो जाती है, शेष सूक्ष्म कर्म परमाणु भी झड़ जाते हैं, चिन्ता-रहित हो जाता है, विशुद्ध आत्मध्यान स्थिर हो जाता है और योगरत्न दृढ़ हो जाता है । उस समय वह जीव जब महासामायिक को ग्रहण कर अपूर्वकरण द्वारा क्षपक श्रेणी को प्राप्त कर बड़े-बड़े कर्मजालों की शक्ति का नाश कर देता है तब उसमें शुक्लध्यान रूपी अग्नि-ज्वाला प्रकट होती है। अनन्तर योग का वास्तविक माहात्म्य प्रकट होता है और वह समग्र घाती कर्मों के पाश से मुक्त होकर परमयोग की स्थिति को प्राप्त होता है, जिससे प्राणी में केवलज्ञान का आलोक प्रदीप्त होता है। इसके पश्चात् जगत् पर अनुग्रह (उपकार) करता है । आयुष्य के अल्प रहने पर केवली समुद्घात द्वारा शेष चार कर्मों को भी समान कर, मन वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध कर, शैलेशी अवस्था पर आरोहण करता है । पश्चात् वह भवोपग्राही समग्र कर्म-बन्धनों को तोड़कर देह रूपी पिंजरे का सर्वथा त्याग कर, भवग्राम (संसार) का सर्वदा के लिये त्याग कर, सततानन्द प्राप्त कर, समस्त प्रकार की बाधा-पीड़ा से मुक्त होकर शिवालय (मोक्ष) नगर में पहुँच जाता है । यह नगर महामठ जैसा है वहाँ वह सारगुरु की तरह अपने को स्थापित कर अपने भाव-कुटुम्बियों (स्वाभाविक गुणों) के साथ समस्त कालों में रहता है। हे राजन् ! इसी कारण मैंने तुम्हें कहा था कि बठरगुरु की उत्तर कथा में जिस प्रकार घटित हुआ उसी प्रकार यदि तुम्हारे सम्बन्ध में भी घटित हो तो तुम भी समस्त प्रकार के दुःख, कष्ट, त्रास और विडम्बना से मुक्त हो सकते हो, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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