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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
दो।' शिव-भक्त ने कहा-'गुरुजी ! मेरे पास तत्त्वरोचक तीर्थ जल है, इसे आप पीजिये ।' बठर ने वह जल पीया । उस जल के पीते ही उसका उन्माद क्षण भर में नष्ट हो गया, उसकी चेतना निर्मल हो गई और जैसे ही उसने अपनी दृष्टि शिव मन्दिर में घुमाई वैसे ही उसको ज्ञात हो गया कि जिन्हें वह अपना मित्र समझता था वे तो उसके शत्रु, चोर, लुटेरे और धूर्त हैं। फिर बठर ने शिव-भक्त से पूछा कि, 'यह सब कैसे हुआ ?' भक्त ने सारा वृत्तांत बठर को धीरे-धीरे सुना दिया। सारी वास्तविकता सुनकर गुरु ने पूछा-'अब मुझे क्या करना चाहिये ?' भक्त ने उसे एक वज्रदण्ड दिया और कहा- 'गुरु ! ये जो तेरे मित्र बनकर बैठे हैं वे वास्तव में तेरे शत्र हैं, इन्हें इस वज्रदण्ड से मार भगाओ, तनिक भी विलम्ब या ढील मत करो।' उसी समय गुस्से में आकर बठर ने चोरों को वज्रदण्ड से मार-मार कर उनका कचूमर निकाल दिया। फिर बठर ने अपनी चित्त कोठरी को खोला तो उसका कूटम्ब भी मुक्त हुा । जब उसने अाँखों के सामने रत्नों का ढेर देखा तब उसे ज्ञात हा कि शिवमन्दिर में कितनी अमूल्य सम्पत्ति है, जिससे उसका मन अति हर्षित हुआ । फिर उसने चोर, लुटेरों और धूर्तों से भरे हुए भवग्राम को छोड़ दिया और एकान्त में आये हुए निरुपद्रव एक शिवालय नामक महामठ में पुनः सारगुरु के नाम से रहने लगा। इस प्रकार सारगुरु की कथा का शेष भाग पूर्ण हुआ। शेष कथा का संक्षिप्त उपनय
धवल राजा-भगवन् ! बठरगुरु की उत्तरकथा हम पर कैसे घटित होगी ?
प्राचार्य-राजन् ! इस कथा में जो शिवभक्त है उसे सद्धर्म के उपदेशक सदगुरु समझे । संसार रूपी भवग्राम में भटकते हुए, रागादि चोरों से त्रस्त, अनेक दुःखों से पीडित, अपने अन्तरंग ऐश्वर्य से भ्रष्ट, स्व-भाव रूपी गुरणों के हितेच्छू कूटम्ब से रहित, संसार में आसक्त, भिखारी की तरह विषयों की भीख मांगने और थोड़ी सी भीख से सन्तुष्ट होने वाले कर्मोन्माद से विह्वल प्राणी को देखकर सद्गुरु को उस पर करुणा आती है और इस प्रकार की भयंकर दु:ख-परम्परा से उसे किस प्रकार छुड़ाया जाए इसका विचार करते हैं । [३३६-३३८] *
इसके परिणामस्वरूप गुरु उपाय ढूढ़ते हैं और जिनेश्वर भगवान् रूपी महावैद्य के उपदेश से उपाय जान लेते हैं । तदनन्तर जैसे धूर्त चोर सोये हुए होते हैं वैसे ही जब राग-द्वेषादि क्षयोपशम भाव को प्राप्त होते हैं तब अवसर देखकर धर्माचार्य जीवस्वरूप शिवमन्दिर में जाकर सत्यज्ञान का दीपक प्रज्वलित करते हैं और प्राणी को सम्यक दर्शन रूपी निर्मल जल पिलाते हैं तथा चारित्र रूपी वज्रदण्ड उसके हाथ में देते हैं। उस समय प्राणी का आत्मस्वरूप रूप शिवमन्दिर सत्यज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से जगमगा उठता है, महा प्रभावशाली सम्यग्-दर्शन रूपी जलपान से पाठों कर्मों का उन्माद नष्ट हो जाता है और उसके हाथ में महावीर्यशाली दैदीप्यमान चारित्र का वज्रदण्ड आता है तब वह धर्माचार्य के उपदेश का अनुसरण कर
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