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________________ प्रस्ताव ५ : बठरगुरु कथा ७७ हा बेचारा बठर जोर-जोर से रोने चिल्लाने लगा। इस अतिजघन्य मोहल्ले में बठर ने बहुत समय तक घूमकर घोर दुःख देखे, पर उसे कहीं भी भिक्षा नहीं मिली। मार खाकर वह उस अतिजघन्य मुहल्ले से वापिस निकला । उसका मिट्टी का खप्पर टूट गया। ठीकरे के फूट जाने पर धूर्तों ने बठर के हाथ में मिट्टी का सकोरा दिया और उसे लेकर दूसरे जघन्य मोहल्ले में आये । यहाँ के क्षुद्र निवासियों ने भी बठर की खब खिल्ली उड़ाई । यहाँ पर भी उसे भिक्षा नहीं मिली और वह इस मोहल्ले से खाली हाथ लौटा । सकोरे के फूट जाने पर धूर्तों ने बठर को ताँबे का पात्र दिया और उसको तीसरे उत्कृष्ट मोहल्ले में ले गये। यहाँ पर बठर को रत्नपूरित शिव मन्दिर का नायक (स्वामी) है इस कारण कुछ-कुछ भीख मिली। यहां के निम्न लोगों ने भी इसकी कदर्थना/विडम्बना की, परन्तु पहले और दूसरे मोहल्ले जितनी नहीं। इस तीसरे मोहल्ले में भी वह बठर कुछ समय तक घूमता रहा। एक दिन उसका ताम्रपात्र भी टूट गया। ताम्रपात्र के टूट जाने पर धूर्तों ने बठर को चांदी का पात्र दिया और उसे अपने साथ चौथे प्रत्युत्कृष्ट मोहल्ले में ले गये । यहाँ के निवासी उसे रत्नों के अधिपति के रूप में भली प्रकार जानते थे, अतः यहाँ बठर को घर-घर से सुसंस्कृत बढ़िया भिक्षा मिली। [२६८-२७४] इस प्रकार से धूर्त चोर लोग बठर गुरु को पुनः-पुनः एक से दूसरे मोहल्ले में फिराते, रात-दिन नाटक करवाते और नचाते । प्रत्येक घर के लोग उसकी हंसी उड़ाते, उसे मारते, प्रसन्नता से तालियां बजाकर उसकी नकल उतारते और विविध प्रकार से उसकी विडम्बना करते । तस्करों के द्वारा ऐसी कदर्थना किये जाने पर भी वह मूर्ख गुरु जैसी-तैसी भिक्षा से पेट भरकर मन में प्रसन्न होता, सन्तुष्ट होता। [२७५-२७७] कभी-कभी तो उत्साह में आकर गाने भी लगता अरे! यह मेरा मित्रवर्ग तो मेरे ऊपर अत्यधिक प्रेम रखता है और सब लोग मेरा विनय (सन्मान) करते हैं। अरे! मुझे तो यह सचमुच में राज्य मिल गया और यह मेरा विकट उदर (पेट) भी अमृत भोजन से भर जाता है। [२७८] विशेषता तो यह कि मुर्ख बठरगुरु आकण्ठ दुःख में डूबा हुआ होने पर भी अपने को सुखसमुद्र से सराबोर मानता था और उन धूर्त चोरों के दोषों का वर्णन कर उनके स्वरूप को बताने वाले हितेच्छुनों से द्वष करता था। [२७६] वह मूर्ख यह बात तो समझता भी नहीं था कि स्वयं बाह्य भावों में पटक दिया गया है, वह पामर रत्नों से परिपूर्ण स्वकीय मन्दिर से निकाल दिया गया है, अपने हितेच्छु अनुरागी सुन्दर कुटुम्बियों से दूर कर दिया गया है और दुःखसमुद्र में डूबा हुआ है। इन सब परिस्थितियों को पैदा करने वाले ये धूर्त चोर हैं, यह भी वह नहीं जानता था। हे राजन् ! इस प्रकार बठरगुरु की कथा का एक भाग मैंने तुम्हें सुनाया। ये धर्मरहित संसारी प्राणी भी इसी प्रकार के हैं। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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