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१६. कथा का उपनय एवं कथा का शेष भाग
गुरु की कथा सुनकर धवल राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने पूछामहाराज ! यह कैसे हो सकता है ?
बुधाचार्य - राजन् ! सुनिये। इस कथा का उपनय (सार) इस प्रकार है:
इस संसार को भव नामक गांव समझे । संसार के मध्य में जीव-लोक के स्वरूप ( वास्तविक रूप ) को प्रति विस्तृत शिव मन्दिर समझें । जैसे शिवमन्दिर रत्नों से भरपूर है वैसे ही जीव का स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि अमूल्य रत्नों से पूर्ण है और समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा परमानन्द को देने वाला है । जैसे रत्नों का स्वामी हो भौताचार्य * / सारगुरु है वैसे ही जीव-स्वरूप का स्वामी समग्र जीवलोक है । जीव के ज्ञानादि जो स्वाभाविक गुण हैं वे उसके कुटुम्बी हैं । यद्यपि ये स्वाभाविक गुण ही श्रेयस्कारी और हितकारी हैं, पर सारगुरु रूपी जीव-लोक के चित्त में यह प्रतिभासित नहीं होता । [ २८०-२८३]
इस संसार में कर्म - योग (सांसारिक कार्य प्रणाली) से मदोन्मत्त यह जीव भी सारगुरु की तरह गुणरत्नों से पूर्ण अपने स्वरूप को नहीं जानता । राग-द्वेष आदि दोष ही चोर कहे गये हैं, जो महा धूर्त हैं और इस जीवलोक को ठगते हैं, किन्तु सारगुरु की ही भांति जीवलोक को ये धूर्त तस्कर ही मित्र और प्रिय लगते हैं । ये रागादि धूर्त ही जीव को अपने गाढ बन्धन में बांध कर कर्मोन्माद बढ़ाते हैं, जीव के स्वरूप को वश में कर उसके जो स्वाभाविक गुरण रूपी कुटुम्बी हैं, उनका हरण कर, कारागार में डाल कर चित्त द्वार बन्द कर देते हैं । हे पृथ्वीनाथ ! ये रागादि धूर्त तस्कर शिवमन्दिर के समान जीवलोक के गुरण-रत्नों से समृद्ध स्वरूप का हरण कर उस पर अधिकार कर लेते हैं । जीव के स्वाभाविक गुणों का हरण कर, उसके भाव कुटुम्ब को अपने वश में कर, ये धूर्त उस पर महामोह का राज्य स्थापित कर देते हैं, जैसे चोरों ने सारगुरु को वश में कर उसके कुटुम्ब को कमरे में बन्द कर ताला लगा दिया था । सांसारिक उन्माद के बढ़ जाने से सारगुरु रूपी जीवलोक रागादि धूर्तों को अपना मित्र मानकर हृष्टचित्त होता है और उनके वशीभूत हो जैसे वे नचाते हैं, वैसे नाचता है । हे नृप ! गीत, ताल और नृत्य का जो यह महा कोलाहल इस संसार में सुनाई देता है वह रागादि चोरों द्वारा ही किया जा रहा है । [२-४-२६१]
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