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________________ ७६ . उपमिति-भव-प्रपंच कथा ने शिव मन्दिर में आना ही छोड़ दिया। शिवभक्तों का आना-जाना बन्द होने से धों का जोर बढ़ा, उन्होंने अपना कपट जाल अधिक फैलाया। बठरगुरु के पागलपन को बढ़ावा देने लगे और अन्त में शिवमन्दिर पर अपना अधिकार कर, बठरगुरु के परिवार को एक कोठरी में बन्द कर ताला लगा दिया। शिवमन्दिर और बठरगुरु को अपने वश में कर धूर्त तस्कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सब से अधिक धूर्त तस्कर व्यक्ति को अपना नायक चुना। फिर धूर्त लोग अपने नायक के सन्मुख तालियाँ बजाकर नाच करने लगे और बठरगुरु से भी प्रतिदिन अनेक प्रकार के नाटक करवाने लगे। नाच करते हुए धूर्त चोर लोग गाते भी जाते थे हे मनुष्यों ! तुम भी किसी प्रकार धूर्तता का भाव धारण कर मित्र को ठगो और उसके भोजन का हरण करलो। देखो, हमने तो बठरगुरु के मन्दिर में घूसकर अधिकार कर लिया और अब मनमानी कर रहे हैं। अत: तुम यहाँ आकर देखो तो सही कि हम कैसे उसके नायक (अधिकारी) बन गये हैं। [२६६] अन्य चोरों ने अपनी दूसरी तान छेड़ी अरे ! हमारी जगप्रसिद्ध धूर्तता से यह बठरगुरु तो हमारे वश में पा गया है और सैंकड़ों रत्नों की समृद्धि के साथ यह शिवमन्दिर भी हमारे हस्तगत हो गया है । हम सब खाते हैं, पीते हैं और मस्ती छानते हैं । [२६७] इतने पर भी वह हतभागी बठरगुरु न तो अपने तिरस्कार और विडम्बना को समझता है, न अपने कुटुम्ब का हाल-चाल जानता है और न यह जानता है कि धन-धान्य से परिपूर्ण मन्दिर दूसरों के हाथ में चला गया है । वह यह भी नहीं समझता कि मन्दिर पर अधिकार करने वाले उसके शत्रु हैं, मित्र नहीं। वह तो इन शत्रुओं को अपना परम मित्र मानता है । ऐसी मूर्खता से पागल बना बठरगुरु हृष्ट-तुष्ट होकर रात-दिन चोर परिवार के बीच में नाचता गाता हुअा अानन्द मानता है। इस भव गांव में चार मोहल्ले थे अतिजघन्य, जघन्य, उत्कृष्ट और अत्युत्कृष्ट । जब बठरगुरु को भूख लगती है और चोरों से भोजन मांगता है तब चोर उसके शरीर पर काले दाग बनाकर, हाथ में घटकर्पर (मिट्टी की ठीकरी का पात्र) देकर कहते हैं कि, 'मित्र गुरु महाराज ! भिक्षा मांगिये, थोड़ा घुमिये ।' बठर की तो स्थिति ऐसी हो गई थी कि जैसा चोर कहे वैसा उसे करना ही पड़े। अतः वह धूर्ती से घिरा हुआ पहले प्रतिजघन्य मोहल्ले में गया । वहाँ धूर्तों ने ताल दे-देकर उसे घरघर नचाया। धर्मों ने मोहल्ले में रहने वाले अधम लोगों को गुरु की * मरम्मत करने का संकेत किया, अतः उस मोहल्ले के निवासियों ने यमराज के समान बठर गुरु की लाठियों, पत्थरों, लातों और मुट्ठियों से खूब मरम्मत की । घोर पीड़ा से तिलमिलाता * पृष्ठ ५१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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