SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 851
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० उपमिति-भव-प्रपच कथा भी होते हैं, किन्तु वे शुद्ध प्रायः होते हैं। उनका ऋण अल्प मात्रा में होता है, अतः वे उनको इतना कष्ट नहीं दे पाते । फिर वे मुनिगण इतने शक्ति-सम्पन्न एवं कृतनिश्चयी होते हैं कि नित्य ही अपने ऋण को थोड़ा-थोड़ा चुकाकर उसे घटाते रहते हैं, अतः ये आठ ऋणदाता साधुओं को इतना त्रास नहीं दे सकते। हे राजन् ! इसीलिये मैंने पहले तुम सबको कर्जदार और स्वयं को ऋणमुक्त कहा था। । [२११-२१६] १४. प्रचला निद्रा हे नरेन्द्र ! जैन-धर्म-रहित प्राणी नित्य ही भाव निद्रा में सोते रहते हैं इसका भी विवेचन सुनो। कर्म-परम्परा अति भीषण है, यह संसार-सागर अतिघोर है, राग आदि भयंकर दोष हैं, प्राणियों का मन चपल है, पाँचों इन्द्रियाँ बहुत चंचल हैं, जीवन अस्थिर है, समस्त समृद्धियां भी चलायमान हैं, शरीर क्षणभंगुर है, प्रमाद प्राणियों का शत्रु है, पाप-संचय दुस्तरणीय है, असंयम दुःख का कारण है, नरक रूपी कुंपा महा भयंकर है, प्रियजनों का संयोग अनित्य है, अप्रिय संयोग भी क्षणिक है, कलत्र-मित्र और बान्धवजनों के प्रति राग और विराग भी क्षणिक है, मिथ्यात्व बैताल महा भयंकर है, वृद्धावस्था तो हाथ में ही बैठी है, भोग अनन्त दुःखदायी है और मृत्यु रूपी पर्वत अति दारुण है। यह सब बिना सोचे ही प्राणी पांव पसार कर सोया है, अपने विवेक चक्षुत्रों को बन्द कर चेतना-शून्य होकर घुर-धुर आवाज करता हुआ घोर निद्रा में पड़ा है। विवेकीजनों द्वारा बहुत तेज आवाज से जगाने पर वह थोड़ा जागकर भी अपनी आँखों को घूर्णमान करता हुआ पुनः इस महामोह निद्रा में बार-बार सो जाता है। हम कहाँ से आये हैं ? किस कर्म से आये हैं ? कहाँ आये हैं ? कहाँ जायेंगे? इन सब पर ये मर्ख प्राणी कोई विचार नहीं करते । अतः बाह्य दृष्टि से ऐसे प्राणी जागत दिखाई देने पर भी वस्तुत: वे भाव-निद्रा में सो रहे हैं, समझना चाहिये। जबकि मुनिपुगवों को ऐसी महामोह रूपी निद्रा नहीं होती । वे भाग्यशाली तो नित्य जागत रहते हैं । सर्वज्ञ प्ररूपित आगम रूपी दीपक से महाबुद्धिमान साधु अपनी और अन्य प्राणियों की गति और आगति को जान जाते हैं, अतः उन्हें बाह्य निद्रा से सुप्त होने पर भी विवेक नेत्रों के खुले होने से जागत ही समझना चाहिये। इन सब बातों का विचार कर ही मैंने पहले कहा था कि तुम सब सो रहे हो, मैं नहीं । महामोह निद्रा में पड़े होने के कारण तुम वस्तु-स्वरूप को सम्यक् प्रकार से नहीं समझते, जबकि मेरे विवेक चक्ष खुले होने से मैं प्रत्यक्षतः एवं स्पष्टतः देखता हूँ। [२१७-२३२] १५. दरिद्रता __ हे राजन् ! जो सद्धर्म से रहित हैं, परमार्थ से उन्हीं प्राणियों को दरिद्रता से आक्रान्त दारिद्र य-मूर्ति समझना चाहिये । हे नरपति ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र और * पृष्ठ ५१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy