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प्रस्ताव ५ : बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन
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कामान्ध होते हैं, अतः पहले से ही मैंने उन्हें विकलाक्ष (अन्ध) कहा है । इस प्रकार का कामजन्य अन्धत्व साधुओं में कदापि नहीं होता है । यद्यपि बाह्य दृष्टि से साधु मन्द दृष्टि वाले या नेत्रहीन भी होते हैं पर वे कामान्ध नहीं होते, अत: उन्हें अन्धा नहीं कहा जा सकता। हे राजन् ! इसीलिये मैंने तुम सब लोगों को अन्धा और स्वयं को पूर्ण एवं विशाल नेत्रों वाला सुलोचन कहा है । [१६५-१६८] १२. पराधीनता
हे राजन् ! गहस्थ प्राणी पराधीन क्यों है और साधू स्वतन्त्र क्यों है ? इस विषय में अब बताता हूँ। स्त्री, पुत्र और चंचल कुटुम्ब आदि भिन्न-भिन्न कर्मों से निर्मित होने से परमार्थ से स्नेह-रहित हैं ।* पर, जिन मूढ प्राणियों ने इस परमार्थ को नहीं समझा है, उन्हें तो वे मन से अत्यन्त ही प्रिय लगते हैं और वे तो इसे ही संसार में सारभूत तत्त्व मानते हैं। उनके मोह में फंसा पामर प्राणी रातदिन पशु की भांति दास नौकर की भांति क्लेश सहन करता है। वह न तो स्वस्थ चित्त से खाना खा सकता है, न रात में सो सकता है और धन-धान्य से समृद्ध होने की चिन्ता में निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है । वह सदा कुटुम्ब का प्राज्ञाकारी बनकर आदेशों का पालन करता रहता है, फिर भी वस्तुतत्त्व के परमार्थ से अनभिज्ञ अपनी पराधीनता को नहीं जानता। यह प्राणी मनुष्य आदि चार गति वाले इस संसार-चक्र में सकल जीवों से माता, पिता, भ्राता, स्त्री, पुत्र, पुत्री आदि सम्बन्धों से अनेक बार सम्बन्धित हो चुका है। इस वस्तुस्थिति को समझने वाला चतुर प्राणी फिर क्यों बार-बार उनके लिये अपने जीवन को हारता है ? क्यों अपने कर्तव्य को भूल जाता है ? इसीलिये महात्मा पुरुष स्त्री, पुत्र आदि रूप इस पिंजरे का पूर्णरूप से त्याग कर निःसंग स्वतन्त्र हो जाते हैं। नि:संग बुद्धि वाले साधु ही स्वतन्त्र हैं, स्वाधीन हैं, भाग्यशाली हैं, पाप-रहित हैं और जगत के स्वामी हैं। ऐसे महाबुद्धिमान् महात्मा अपने गुरु के अधीन होने पर भी घर-कुटुम्ब के पाश/बन्धन से निमुक्त होने से पूर्णतया स्वतन्त्र हैं। हे मानवेश्वर ! इस बात को ध्यान में रखकर ही मैंने तुम्हें पराधीन और अपने को स्वतन्त्र कहा था । [१६६-२१०] १३. पाठ ऋणदाता
हे राजन् ! मैंने पहले जो कहा था कि मेरे सिर पर आठ ऋणदाता हैं, वे प्राणियों से सम्बन्धित ज्ञानावरणीय प्रादि अाठ कर्म हैं, जो प्राणी को अनेक प्रकार के दुःख देते हैं। ये कर्म जीव को निरन्तर व पुनः-पुन: कथित करते रहते हैं। इन तीव्र दारुण कर्मों से प्राणी दान आदि लेने-देने में, भोग-उपभोग करने में और अपनी शक्ति का उपयोग करने में असमर्थ हो जाता है। ये कई प्राणियों को कभी भूखा-प्यासा रखते हैं, कभी उसे दीन-हीन बनाकर विह्वल कर देते हैं और कभी उसे नरक के कोठे में डालकर गाढ़ पीड़ा देते हैं। ये आठ कर्मरूपी ऋणदाता साधुओं के
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