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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
८. वृद्धावस्था
हे नरेन्द्र ! अनादि काल से संसार-चक्र चल रहा है, जिसमें प्राणी समान गति से जन्म, मरण और पूर्ववत् व्यवहार की प्रवृत्ति करता ही रहता है, पर इसके इस जन्म-मरण और व्यवहार में कोई विशिष्टता देखने में नहीं आती है। इसने न कभी श्रेयस्करी विद्याजन्म (विद्वत्ता का अनुभव) ही प्राप्त किया है, न कभी इसने विवेक रूपी तरुणाई ही प्राप्त की है और न कभी भावमृत्यु को ही प्राप्त होता है। इसलिये प्राणी जब तक संसार में रहता है, मात्र जीवन-मरण के चक्कर ही लगाता रहता है और अनन्त दुःख समूह रूपी वृद्धावस्था से जीर्ण-शीर्ण ही दिखाई देता है । बाह्य दृष्टि से चाहे ऐसे प्राणी युवक ही दिखाई देते हों, पर तत्त्वतः उन्हें जरा-जीर्ण ही समझना चाहिये । हे नृप ! जब कि दूसरी ओर साधुओं का जीवन ही श्रेयस्करी विद्यामय होता है, विवेक रूपी यौवन से वे ओत-प्रोत रहते हैं और दीक्षा सुन्दरी के साथ आनन्द से विलास करते हैं। उन्हें त्रासकारी बुढ़ापा आता ही नहीं, वे सदा भाव-यौवन में ही रहते हैं और जब मरते हैं तब इस प्रकार मरते हैं कि उन्हें पुन: जन्म लेना ही न पड़े। अतः सभी संसारी प्राणी दीर्घजीवी होने पर भी बुढ़ापे से जीर्ण हैं, जब कि साधु अपने कर्मों को काटने में शक्तिमान होने से सर्वदा यौवन में ही रहते हैं । (हे राजन ! इसी पर्यालोचन के कारण मैंने पहले तुम लोगों से कहा था कि तुम सब वृद्ध हो, मैं नहीं ।) [१८२-१८८] ६. ज्वर
हे भूप ! संसारी मूर्ख प्राणी सर्वदा राग रूपी संताप से संतप्त रहते हैं, अतः विद्वानों ने उन्हें महाज्वर से तप्त कहा है । साधुओं में तो राग की गन्ध भी नहीं होती, अतः बाह्य दृष्टि से भले ही वे ज्वर-पीड़ित दिखाई देते हों, पर राग रूपी संताप से रहित होने से उन्हें ज्वर-रहित ही समझना चाहिये । [१८६-१६०] १०. उन्माद
हे धरानाथ ! अपने आपको पण्डित मानने वाले भी जब मुर्ख संसारी प्राणी की तरह करणीय कर्तव्य कार्य और सद् अनुष्ठान में तो प्रवृत्त नहीं होते, अपितु बार-बार रोकने पर भी पाप कार्य तथा प्रकरणीय कार्यों में तत्परता से प्रवृत्त होते हैं, अतः वे उन्मत्त (पागल) ही हैं ऐसा समझे । जबकि दूसरी ओर शुद्ध बुद्धि वाले साधुगण सर्वदा सदनुष्ठान में रत रहते हैं, अतः उन्हें ऐसा उन्माद नहीं होता । हे राजन् ! इसी विचार-विमर्श के आधार पर मैंने कहा था कि तुम सब वृद्धावस्था से जीर्ण, रोगग्रस्त और उन्मादयुक्त हो, मैं नहीं हूँ। [१६१-१६४] ११. अन्धापन
हे वसुधापति ! संसारी प्राणी भले ही बाह्य दृष्टि से विशाल नेत्रों वाले हों और अपने सुन्दर नेत्रों से प्रांखें फाड़-फाड़ कर देख रहे हों, फिर भी वे अन्दर से
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