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प्रस्ताव ५ : बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन
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वीर्य जो भावरत्न हैं, वस्तुतः वे ही धन के भण्डार हैं, वे ही ऐश्वर्य के कारण हैं और वे ही सुन्दर हैं ; जो पापात्माओं के पास नहीं होते। फिर इनके बिना उनके पास कैसा धन ? फलतः इन भाव-रत्नों से रहित जो लोग धन से परिपूर्ण दिखाई देते हैं, उन्हें भी परमार्थ से निर्धन ही समझना चाहिये ।* हे भूप ! जबकि दूसरी ओर साधु महात्मा तो नित्य ही चित्त रूपी मन्दिर में इन भाव-रत्नों से जगमगाते रहते हैं, अतः वे ही वास्तव में सच्चे धनिक हैं, वे ही धन्य हैं और वे ही परम विभूति सम्पन्न हैं। वे निःसंदेह निखिल संसार का पोषण करने में शक्तिमान हैं । हे नृप ! बाहर से फटे मैले वस्त्रों से वे भले ही मलिन, भिखारी और दरिद्र दिखाई देते हों और उनके हाथ में तूम्बड़े (पात्र) दिखाई देते हों तथापि परमार्थ से विद्वानों ने उन महर्घ्य एवं अमूल्य रत्नधारी मुनियों को ही परमेश्वर माना है । हे नरेन्द्र ! अावश्यकता पड़ने पर वे महात्मा अपने तेज के द्वारा एक तृण से भी रत्नों के भण्डार का निर्माण कर सकते हैं । अतः अपने दारिद्र य का पर्यालोचन न कर आपने मुझ जैसे भाव-रत्नों के धारक महाधनी साधु को दरिद्री कैसे बतलाया ? [२३३-२४२] १६. मलिनता
हे पृथ्वीपति! जो व्यक्ति कर्म-मल से भरा हुआ है वही वास्तव में मलिन है । कर्म-मल से पूरित प्राणी शरीर के बाहरी अंगोपांगों को कितना भी धोकर, सुन्दर वस्त्र धारण करले तथापि उसकी मलिनता में न्यूनता नहीं पाती। जबकि बाहर से मलिन वस्त्र धारण करने पर भी जिनके मन बर्फ, मोती के हार और गाय के दूध के समान स्वच्छ हैं, हे मानवेश्वर ! वे ही वास्तव में स्वच्छ हैं, निर्मल हैं, ऐसा समझना चाहिये । तुम सब लोगों में विद्यमान इस भाव-मलिनता का विचार किये बिना ही तुम सब ने किस कारण से मेरी हँसी उड़ाई ? [२४३-२४५] १७. दुर्भाग्य
सद्धर्म में निरत पुरुष ही इस विश्व में सौभाग्य-सम्पन्न होता है । ऐसा पुरुष ही विवेकी पुरुषों का हृदयवल्लभ होता है। जिसका चित्त सद्धर्मवासित होता है वही जगत के समस्त सुर, असुर, चराचर प्राणियों का बन्धु तुल्य होता है । अर्थात् ऐसा सत्पुरुष ही समस्त सृष्टि के साथ मैत्री-भाव/प्रेम-भाव रखता है । साधु तो इस लोक में सर्वदा सदाचार में ही रत रहते हैं, अतः वे ही वास्तव में सौभाग्यशाली हैं । जो ऐसे साधु पुरुषों से द्वष करते हैं वे नराधम हैं, पापी हैं। जिस प्राणी में अधर्म का जितना प्राधिक्य है वह भावतः उतना ही दुर्भागी है। सभी विवेकी पुरुष ऐसे अधर्मी की निन्दा करते हैं। अतः जो प्राणी पाप-रत है वही लोक में दुर्भाग्य के योग्य होता है । हे नराधिप ! ऐसे पापी की जो प्रशंसा करते हैं वे भी दुर्भागी और पापी
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