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________________ प्रस्ताव ५ : बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन होते । उनमें ये दोष क्यों नहीं होते, इसका कारण अब मैं समझाता हूँ। जो व्यक्ति बाहर से सुवर्ण जैसे पीले रंग का हो किन्तु भीतर से पाप रूपी अंधकार से लिप्त हो तो परमार्थ से वह काला ही है, ऐसा पण्डितजनों का अभिमत है । हे नरेन्द्र ! बाहर से कोयले जैसा काला व्यक्ति भी यदि अन्तःकरण से स्फटिक रत्न जैसा निर्मल हो तो वह कनकवी ही है, ऐसा विचक्षण लोग मानते हैं । अतएव काले रंग वाले साधु का भी मन यदि वास्तव में शुद्ध है तो, हे नरपति ! परमार्थतः उसे स्वर्ण के समान कनकवी ही मानना चाहिये। हे नराधिप ! गृहस्थ संसार में रहकर अनेक प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ युक्त पाप-परायण होता है, अतः उसका शरीर स्वर्ण जैसा गौरवर्णी दिखने पर भी परमार्थ से उसे कृष्णवर्णी ही समझना चाहिये । इसी वास्तविकता के कारण मैंने उस समय तुम्हें और सभाजनों को कहा था कि काला मैं नहीं तुम सब लोग हो ।* [१३६-१४५] २. भूख हे नरेश्वर ! मैंने तुम सब को भी भूखा बताया उसका भी स्पष्टीकरण सुनो। पहले भूख शब्द की व्याख्या समझो। चाहे जितने विषयों के प्राप्त होने पर भी तृप्ति न हो, सन्तोष प्राप्त न हो, उसे ही विद्वान् परमार्थ-दृष्टि से भूख मानते हैं। अर्थात् खाने की इच्छा को भूख तो मात्र व्यवहार में कहा जाता है, वास्तविक भूख तो मानसिक असन्तोष पर आधारित है । सद्धर्म से रहित संसार के सभी मूढ प्राणी प्रायः संसार में इतने अधिक प्रासक्त होते हैं कि उन बेचारों की यह भूख कभी मिटती ही नहीं, अर्थात् सदा बुभुक्षित ही रहते हैं। ऐसे प्राणी खा-पीकर, विषय भोगकर तृप्त दिखाई देने पर भी तत्त्व से वे क्षुधातुर ही हैं, ऐसा समझें । दूसरी ओर निरन्तर सन्तोष से पुष्ट होने वाले साधुओं का यदि आप गहराई से अवलोकन करें तो, हे राजन् ! आपको दिखाई देगा कि यह भयंकर भाव-भूख उन पर कोई असर नहीं कर पाती; क्योंकि उनके मन में कभी असन्तोष होता ही नहीं। चाहे उनके पेट खाली हों, भूख से उत्पीड़ित दिखाई देते हों तथापि स्वस्थ मन वाले होने से उन्हें तृप्त ही समझना चाहिये । हे पृथ्वीपति ! इसीलिये मैंने तुम सब को क्षुधा से पीड़ित कहा था और स्वयं को तृप्त बताया था । [इस से तुम्हें समझना चाहिये कि मेरे जैसे योग्य आचरण वाले सभी साधु तृप्त हैं और तुम्हारे जैसे संसार में रहने वाले धन-धान्य, विषय, कषाय और परिग्रह में आसक्त गृहस्थ अतृप्त हैं ।] [१४६-१५१] ३. प्यास हे नरपति ! अप्राप्त भोगों को प्राप्त करने की अभिलाषा भाव-कंठ का शोषण करने वाली होने से उसे ही प्यास कहा जाता है। जैन धर्म-रहित प्राणी चाहे जितना पानी पीकर भी निरन्तर इस भाव-तष्णा से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि • पृष्ठ ५१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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