________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
उन्हें नये-नये विषय-भोग प्राप्त करने की अभिलाषा निरन्तर बनी रहती है, जिससे उनका भाव कण्ठ सूखता ही रहता है । दूसरी ओर यदि आप मुनियों के विषय में अवलोकन करेंगे तो आपको प्रतीति होगी कि ये महात्मा भविष्य में प्राप्त करने योग्य किसी भी प्रकार के भोगों के विषय में बिल्कुल इच्छा-रहित होते हैं, निःस्पृह होते हैं, इससे उन्हें सामान्य जल प्राप्त हो चाहे न हो किन्तु वे वास्तविक प्यास से तो दूर ही रहते हैं। भोग भोगने की अभिलाषा प्राणी को कैसा आकुलव्याकुल बना देती है, इस पर तनिक गम्भीरता से विचार करें। हे राजन् ! इसीलिये मैंने कहा था कि तुम सब तृषा-पीड़ित हो, मैं नहीं। [१५२-१५५) ४. मार्ग-श्रम
इस संसार का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ और इसका अन्त कहाँ और कब हो जायगा, इसे कोई नहीं जानता। यह संसार-मार्ग सैकड़ों दोष रूपी चोरों से व्याप्त है, पूरा मार्ग विषम है, विषय रूपी मस्त हाथी या विषैले सर्पो से भरा हुआ है और दुःख रूपी धूल से परिपूर्ण है। हे नरेन्द्र ! ऐसे आदि-अन्त-रहित, चोर-सर्प से व्याप्त विषम मार्ग को विद्वानों ने अपने भाव-चक्षुओं से देखा है और इस सम्पूर्ण मार्ग को शरीरधारियों के लिये अति भयंकर दुःख और खेद का कारण बताया है। संसारी प्राणी इस संसार-मार्ग पर कर्म रूपी सम्बल (गठरी) का भार सिर पर लाद कर (घाणी के बैल की तरह) निरन्तर घूमते रहते हैं, पर लेशमात्र भी आगे नहीं बढ़ पाते । फलतः विशुद्ध जैन-धर्म-रहित मूढ प्राणी संसारमहामार्ग से थककर खेद प्राप्त करते हुए निरन्तर क्षुभित और दुःखी दिखाई देते हैं। उनके व्यवहार में उनका मार्ग-श्रम स्पष्ट झलकता है । वे चाहे शीत-तापनियन्त्रित सुन्दर घर, बंगले या राज्यमहल में रहते हों तथापि तत्त्वत: उन्हें निरन्तर मार्गश्रम से थकित ही मानना चाहिये । हे भूपति ! दूसरी ओर मुनि विवेकपर्वत शिखर पर स्थित सतताह्लादकारी जैनपुर में निवास कर लीला लहर करते हैं । जैनपुर के हिम-शीतल चित्तसमाधान मण्डप में रहकर वे अपने आपको इतना निवृत्त कर लेते हैं कि मार्गश्रम अथवा त्रास का कोई भी कारण उनके पास नहीं रहता, अर्थात् विगतश्रम हो जाते हैं। बाहर से देखने पर आपको मुनिगण मार्गश्रम से परिश्रान्त लग सकते हैं, किन्तु परमार्थ से उन्हें अश्रान्त समझना चाहिये । * इसीलिये हे राजेन्द्र ! मैंने पहले तुम्हें थका हुआ और स्वयं को खेदनिमुक्त कहा था। [१५६-१६४] ५. ताप
हे भूप ! क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चतुर्विध दारुण और गहन कषायों के ताप से संसारी प्राणियों के सर्वांग सतत जलते रहते हैं । यद्यपि बाह्य शरीर पर वे सदा चन्दनादि शीतल पदार्थों का विलोपन किये रहते हैं, फिर भी
* पृष्ठ ५११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org