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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मुनि-भूप! मैं न तो कोई देवता हूँ और न ही कोई राक्षस ! मैं तो एक साधारण यति (साधु) हूँ और मेरे वेश से ही आप सब यथावस्थित रूप भली प्रकार समझ सकते हैं। [१२५]
धवल राजा-भगवन् ! आपने पहले जो अत्यन्त बीभत्स, घणोत्पादक, करुणाजनक विकृत रूप धारण किया था, उसका क्या कारण था ? आपके पहले शरीर में जो काला रंग आदि स्पष्ट दोष दिखाई दे रहे थे,* वे सब दोष आप में न होकर हम लोगों में हैं, ऐसा आपने जो कहा वह किस कारण से कहा ? फिर क्षरण भर में आपने ऐसा असाधारण सुन्दर रूप कैसे धारण कर लिया ? भगवन् ! मुझ जैसे मूढ को तो इन आश्चर्यजनक बातों को देखकर मन में अत्यधिक कुतूहल हो रहा है, अतः हे प्रभो! आप इस सम्बन्ध में स्पष्टतः समझाकर मेरी जिज्ञासा को शांत करने की कृपा करें। [१२६-१२६] बुधाचार्य का उत्तर
बुधाचार्य-भूपेन्द्र धवल और सभाजनों! आप मध्यस्थ मानस बनाकर शान्ति से बैठे और मेरे द्वारा कथ्यमान प्रसंग को ध्यानपूर्वक सुनें । हे राजन् ! मैंने पहिले जो रूप धारण किया था, वह संसार में रहे हुए जीवों को उद्देश्य (लक्ष्य) में रखकर ही धारण किया था । वास्तव में सभी संसारी जीव मेरे पहले के रूप जैसे ही हैं, किन्तु वे मूढ चित्त वाले होने से इसे समझ नहीं पाते । अतः सब प्राणियों पर दृष्टान्तभूत (घटित होने वाला) और उन्हें लज्जित करने वाला अत्यन्त बीभत्स रूप मैंने उन प्राणियों को प्रतिबोधित करने के लिए ही धारण किया था। हे राजन् ! मैंने वह रूप मुनि वेष में धारण किया उसका विशेष कारण था और 'काला रंग आदि शरीर के समस्त दोष तुम में ही हैं मुझ में नहीं' यह भी मैंने सकारण ही कहा था । हे भूप ! इस विषय पर अब मैं विस्तार से कथन करता हूँ, आप सभी सभाजन बुद्धि-चातुर्य को धारण कर ध्यानपूर्वक सुनें और समझने का प्रयत्न करें। [१३०-१३५] स्पष्टीकरण-१. काला रंग
__ सर्वज्ञ दर्शन में जो बुद्धिशाली मुनि महात्मा होते हैं वे तप और संयम के योग से अपने समस्त पापों और दोषों को क्षालित कर देते हैं, अतः बाहर से चाहे वे काले-कीट दिखाई देते हों, घृणोत्पादक बीभत्स हों, कोढी हों, भूख-प्यास से पीड़ित हों, तथापि वस्तुतः (परमार्थ से) वे सुन्दर हैं । हे राजन् ! पाप में प्रासक्त, विषयों में गृद्ध और सद्धर्म से बहिष्कृत (विशुद्ध धर्म से दूर) गृहस्थ बाह्य दृष्टि से निरोग, सुखी और आनन्दित दिखाई देने पर भी तत्त्वत: वे रोगी, दु:खी और पीड़ित हैं । पुनः, काला रंग आदि दोष जैसे गृहस्थों में होते हैं वैसे साधुओं में नहीं
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