SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 844
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ५ : बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन लेना चाहिये । महात्मा लोग भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं, अतः हमें इनके पांवों में पड़ना चाहिये । [११४ - ११५] विमल की बात सुनकर दैदीप्यमान चपल मुकुटधारी धवल राजा अपने दोनों हाथ जोड़कर मुनि महाराज की ओर दौड़े और उनके चरणों में गिर पड़े। महाराजा द्वारा मुनि के चरण-कमल छूकर वन्दना करते ही वहाँ उपस्थित जन-समूह ने भी मुनि के चरण छूकर नमस्कार किया। पांवों में पड़े-पड़े ही महाराजा बोले-हे मुनिराज ! हम निर्बुद्धि अज्ञानी मनुष्यों ने प्रापका जो अपराध किया हो उसे क्षमा कीजिए और हम पर प्रसन्न होकर आपका दिव्य-दर्शन कराने की कृपा कीजिये। [११६-११८] दिव्य-दर्शन __ राजा और सभी लोग उनको प्रणाम कर जैसे ही खड़े होकर सामने देखते हैं तो उनके आश्चर्य का पारावार नहीं रहता। दीन-दुःखी, कुरूप, भिखारी के स्थान पर उन्होंने देखा कि मुनीन्द्र एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य स्वर्ण-कमल पर विराजमान हैं। उनके शरीर का लावण्य देवों के लावण्य को भी तिरस्कृत करने वाला और नेत्रों को तृप्त करने वाला है। उनका तेज इतना अधिक विस्तृत और दीप्तिमान था कि मानो वे साक्षात् सूर्य ही हों । वे समस्त लक्षणों से विभूषित और समस्त अंगोपांगों से स्पष्टतः अतिशय सुन्दर दिखाई देते थे। मुनीश्वर को अतिशय कान्तिमान सुन्दर स्वरूप में देखकर राजा और वहाँ उपस्थित समग्र जन समूह के नेत्र आश्चर्य से प्रफुल्लित हो गये। [११६-१२२] १३. बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन दीन-दुःखी दिखाई देने वाले भिखारी ने जब अपना अत्यन्त आकर्षक रूप धारण किया और एक शांत मुनीश्वर के रूप में स्वर्ण-कमल पर बैठकर उपदेश देना प्रारम्भ किया तब वहाँ उपस्थित लोग स्वभाव से ही अन्दर ही अन्दर बातें करने लगे-अरे ! यह पहले तो कैसे कुरूप थे और अब ऐसे सौन्दर्यपूञ्ज कैसे हो गये ? लगता है वास्तव में ये कोई महा भाग्यशाली देवता ही होंगे । [१२३] धवल राजा का प्रश्न जब लोग मन ही मन उपरोक्त बातें कर रहे थे तब भूपति धवल ने अपने दोनों हाथ जोड़कर ललाट पर लगाते हुए पूछा--भगवन् ! आप कौन हैं ? क्या हमें बताने की कृपा करेंगे? [१२४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy