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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा सभाजनों पर तीक्ष्ण दृष्टि फेंकते हुए गंभीर स्वर में कहने लगे अरे ! पापी अधम पुरुषों ! क्या मैं तुमसे भी कुरूप हूँ कि तुम मूर्खो की तरह मुझ पर हँस रहे हो ? क्या तुम मुझे अपने से अधिक दुःखी समझकर हँस रहे हो ? अरे मूर्खों ! शरीर के काले तुम्हीं हो, भूख से पाताल में पेट धंसे हुए तुम्हीं हो, प्यास से सूखे होंठ वाले भी तुम्हीं हो। मार्ग-श्रम से थके हुए भी तुम्ही हो, ताप से पीड़ित भी तुम्हीं हो और कोढी भी तुम्हीं हो, मैं नहीं । श्ररे नराधमों ! शूल पीड़ा से तुम्हीं पीड़ित हो, वृद्धावस्था से जीर्ण भी तुम्हीं हो, महाज्वर से ग्रसित भी तुम्हीं हो, उन्मादग्रस्त और अंधे भी तुम्हीं हो, मैं नहीं । अरे मूर्ख मनुष्यों ! पराधीन ऋणग्रस्त और बैठे-बैठे ऊंघने वाले भी तुम्हीं हो, मैं नहीं । दरिद्र, मलिन और दुर्भागी भी तुम्हीं हो, मैं नहीं । अरे ना समझ बच्चों ! अरे पापियों ! काल की आँख तुम पर ही लगी है, तभी तो मुझे दुर्बल मुनि मानकर तुम लोग मुझ पर हँस रहे हो [१००-१०५] ६२ दीन का उग्र दर्शन इस दीन-दुःखी पुरुष की जाज्वल्यमान सूर्य जैसी तेजस्वी आँखों से निकलते दैदीप्यमान प्रकाश से चारों दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं । उसकी विद्युत् जैसी लपलपाती जिव्हा श्रौर चमकती हुई दंतपंक्ति को देखकर तथा सारे संसार को थर-थर कंपित करने वाली सिंहनाद जैसी वाणी को सुनकर, जैसे हरिणों का झुंड भय से थर-थर कांपने लगता है वैसे ही सभी सभाजन भय से कांप उठे । [ १०६ - १०८ ] धवल राजा का चिन्तन और प्रार्थना विचक्षण धवल राजा ने अपनी कल्पना को दौड़ाया और कुछ सोचकर विमल से बोले - कुमार ! यह कोई साधारण पुरुष नहीं लगता है । * इसकी आँखें पहले मैल और चेप से भरी थी और अब सूर्य से अधिक चमक रही हैं । हे वत्स ! इसका मुंह तेज से दैदीप्यमान हो रहा है । वत्स ! रणभूमि में करोड़ों शत्रुत्रों को छिन्न-भिन्न कर देने वाली इसकी सिंहनाद-सम वाणी सुनकर मेरा दिल अब भी कांप रहा है । अतः मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यह कोई साधारण पुरुष न होकर प्रच्छन्न रूप में साधु का वेष धारण कर कोई देव यहाँ आया है | अतएव हे वत्स ! ये मुनिपुंगव क्रोधान्ध होकर हम सब को अपने तेज से जला कर भस्म न कर दें, उसके पहिले ही हमें इन्हें शान्त करना चाहिये, प्रसन्न करना चाहिये श्रौर इनकी कृपा प्राप्त करनी चाहिये । [ १०६-११३] विमल - प्रापश्री का निर्णय मुझे भी युक्तियुक्त लग रहा है, इसमें संदेह नहीं । ये साधारण पुरुष न होकर अवश्य ही कोई विशिष्टतम महात्मा प्रतीत होते हैं । पिताजी ! ये हमारा कुछ भी बिगाड़ करें उसके पहले ही हमें इन्हें प्रसन्न कर * पृष्ठ ५०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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