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प्रस्ताव ५ : उग्र दिव्य-दर्शन
मुझे तो निश्चित रूप से प्रतीत होता है कि स्वयं बुध आचार्य ही वैक्रिय रूप धारण कर मेरे बन्धुवर्ग को बोध देने के लिए यहाँ आये हैं । [१४] अरे हाँ, प्राचार्यदेव ने रत्नचूड द्वारा मुझे कहलाया था कि मैं दीन-दुःखियों की शोध-खोज करू ं और वे अन्य रूप धारण कर यहाँ आयेंगे । उन्होंने यह भी कहलाया था कि यदि मैं उन्हें पहचान लूं तो भी मैं उन्हें वन्दना नहीं करू और जब तक स्व-प्रयोन की सिद्धि (अपने बन्धुत्रों को प्रतिबोधित करने का कार्य सिद्ध) नहीं हो तब तक मैं उनकी किसी से पहचान भी नहीं करवाऊं ।
प्राचार्य को अंतरंग प्रणाम
प्राचार्य बुध के गुप्त संदेश को स्मरण कर तथा उनकी परोपकारवृत्ति की प्रशंसा कर विमल ने उन्हें मानसिक नमस्कार किया :
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हे वस्तु सद्भाव के ज्ञाता ! भव्य प्राणियों के वत्सल ! * मूढ प्राणियों को प्रतिबोध देने में कुशल ! हे आचार्य भगवन् ! आपको नमस्कार हो । अज्ञान रूपी अपार जल से भरे संसार सागर को पार करवाने में निपुण हे महाभाग महात्मन् ! आपका स्वागत है । आप भले पधारे, आपने यहाँ पधार कर बहुत ही प्रशस्त कार्य किया । [६५-६६ ]
आचार्य भगवान् ने भी विमल के मानसिक नमस्कार का मानसिक उत्तर इस प्रकार दिया :--
हे भद्र ! हे अनघ ! (पापरहित ) तेरी कार्य-सिद्धि के लिए संसार सागर से पार उतारने वाला और सर्व प्रकार के कल्याण को प्रदान करने वाला तुझे धर्मलाभ हो । [ ६७ ]
दीन-दुःखी के प्राक्रोशमय उद्गार
जब राजपुरुष इस दीन-दुःखी पुरुष को हिमभवन में लेकर आये थे तब उस समय वह खेद सहन करने में असमर्थ हो हाय-हाय करता हुआ जमीन पर बैठ गया और जमीन पर बैठा-बैठा ही ऊंघने लगा । उसे ऐसी विचित्र स्थिति में देखकर वहाँ उपस्थित पुरुषों में से कई हँस रहे थे, कई शोकातुर थे, कई निन्दा कर रहे थे और कई तिरस्कार कर रहे थे । कई लोग आपस में चुपचाप बातें कर रहे थे—'अरे ! यह तो बहुत दुःखी है, गरीब है, रोगग्रस्त है, परिश्रान्त है, व्यथित है, भूख से पीड़ित है । अरे ! यह नराधम तो एक नाटक जैसा ही है । अरे ! इसे कहाँ से उठा लाये ? कौन ले प्राया ? देखो न, प्रत्यधिक दुःखी होने पर भी बेचारा कुछ नहीं समझता और बैठा-बैठा ही ऊंघ रहा है ।' [ ६८-६९ ]
उपरोक्त परिस्थिति को देखकर परिवर्तित रूप में विद्यमान बुध प्राचार्य ने अपनी ग्राँखों को दीपक के समान तेजस्वी बना लिया और अतिशय कुपित होकर
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