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१२. उग्र दिव्य दर्शन
[ अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटित हुई । विचित्र प्रश्न करने वाला प्रौर प्रत्यन्त दुःखी तथा बीभत्स दिखाई देने वाला प्राणी धवल राजा के समक्ष खड़ा था । उसके आँखों की चमक और व्यवहार का वेग विचित्र होता जा रहा था । उसके सम्बन्ध में राजपुरुषों द्वारा किया गया वर्णन सब को आश्चर्य में डुबो रहा था ।] विमल का विशिष्ट चिन्तन
विमलकुमार सोच रहा था कि, ग्रहो ! आचार्य बुध भगवान् ही श्रा पहुँचे लगते हैं । अहो ! प्राचार्य इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि वे चाहे जैसा रूप बना सकते हैं । उनकी शक्ति को धन्य है । अहा ! उनकी मुझ पर कितनी कृपा है । अहो ! अन्य पर उपकार करने की उनकी सात्विक वृत्ति को धन्य है । ग्रहो ! अपनी सुख-सुविधा की वे तनिक भी अपेक्षा नहीं रखते । श्रहो ! किसी कारण या अपेक्षा के उनकी सज्जनता को धन्य है । कहा भी है :
सत्पुरुष स्वभाव से ही अपने कार्य की उपेक्षा / अवगणना करके भी दूसरों के कार्य - साधन में सर्वदा उद्यमशील रहते हैं । दूसरों का हितसाधन करना उनका प्राकृतिक गुरण है, इसमें संदेह नहीं । अथवा सत्पुरुष दूसरों के हित-साधन को स्वयं का ही कार्य समझकर प्रवृत्ति करते हैं । सूर्य प्रभात से संध्या तक लोक को उद्योतित करता है, पर क्या वह किसी से कुछ फल की आशा करता है ? नहीं । वह अपनी प्रवृत्ति मात्र परोपकार के लिए ही करता है और परोपकार को ही स्वकार्य समझता है । अपना कार्य होने पर भी सत्पुरुष उसकी प्रोर विशेष लक्ष्य नहीं रखते । चन्द्र में कलंक है जिसे मिटाना उसका कार्य है, फिर भी वह उस ओर ध्यान न देकर मात्र जगत में शीतल चांदनी फैलाने का ही कार्य करता है । धीर एवं बुद्धिशाली पुरुष बिना प्रार्थना के ही परहित का कार्य करते हैं । वर्षा भली प्रकार बरस कर सृष्टि को नवपल्लवित करती है और गर्मी को शांत करती है, पर मेघ से प्रार्थना करने कौन जाता है ? साधु पुरुष स्वप्न में भी अपने शरीर के सुख की इच्छा नहीं करते, दूसरों के सुख के लिये अनेक प्रकार के क्लेश सहन करना, ताप सहन करना, दुःख भोगना ही उनका वास्तविक सुख होता है । जिस प्रकार आाग का स्वभाव अपनी गर्मी से अनाज आदि पकाना और जल का स्वभाव प्राणियों को जीवन देना है उसी प्रकार सत्पुरुषों का लोक में परहित करने का स्वभाव ही होता है । ऐसे सत्पुरुष जो अन्य के हित और परोपकार में रत रहते हैं और जो परहितार्थ अपने सुख, धन और जीवन को भी तृरण-तुल्य समझते हैं वे स्वयं ही अमृत नहीं तो क्या हैं ? महात्मा अपने धन और जीवन का उपयोग भी परहित में करने के लिए सर्वदा कृतनिश्चय होते हैं । ऐसे महात्मा पुरुषों के स्वकीय प्रयोजन निश्चित रूप से स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं । [ ८६-९३ ]
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