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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा करने का मार्ग प्रशस्त कर सकेगी अर्थात् उन्हीं की बात से अब उनको उपदेश दिया जा सके ऐसी व्यवस्था होना सम्भव है। ऐसा सोचकर विमलकुमार ने विनयपूर्वक उत्तर दिया--पिताश्री ! आप जो आज्ञा प्रदान करें और मातुश्री जो आदेश दें वह सब तो मेरे लिये आचरण करने योग्य है ही, इसमें संकल्प-विकल्प तो किया ही नहीं जा सकता । मेरा इस विषय में ऐसा विचार है कि हमारे राज्य में रहने वाले सभी लोगों के दुःख दूर कर, उन्हें सुखी बनाकर फिर मैं सुख का अनुभव करू तो श्रेष्ठ रहेगा। राज्य की वास्तविक सार्थकता इसी में है, अन्य किसी प्रकार से नहीं । राजा का प्रमुख धर्म यही है और इसी में उसकी प्रभुता है। कहा भी है कि : विधाय लोकं निर्बाधं स्थापयित्वा सुखेऽखिलम् । यः स्वयं सुखमन्विच्छेत् स राजा प्रभुरुच्यते ।। यस्तु लोके सुदुःखार्ते सुखं भुक्ते निराकुलः । प्रभुत्वं ही कुतस्तस्य कुक्षिम्भरिरसौ मत: ॥ [ ७९-८० ] जो राजा अपनी प्रजा को बाधा-पीड़ा रहित बनाकर सर्वत्र सुख की स्थापना करने के पश्चात् स्वयं भी सुख की कामना करता है तो वही राजा वास्तव में प्रभु कहा जाता है। किन्तु जिसकी प्रजा तो दुःख से तड़फती रहे और वह स्वयं बिना किसी व्याकुलता के निरन्तर सुख भोगता रहे तो फिर उसकी प्रभुता कहाँ रही ? ऐसा राजा या स्वामी तो निरा पेट और स्वार्थी ही है। पिताजी ! माताजी ! मुझे तो यही राज्य-धर्म लगता है। अब वह समय पा गया है। अभी ग्रीष्म ऋतु से सारी पृथ्वी तप रही है, अतः मैं तो इसी मनोनन्दन उद्यान में रहंगा । मेरे बन्धु और मित्र वर्ग भी यहीं मेरे पास ही रहेंगे। आप दोनों की आज्ञा का पालन करते हुए और ग्रीष्म ऋतु में करने योग्य सभी लीलाओं को करते हुए मैं वहाँ रहूंगा। आप राजपुरुषों को ऐसी आज्ञा दीजिये कि जो कोई दुःखी और दुर्भागी प्राणी हों उन्हें ढूढ कर वे वहाँ मेरे पास लावें और वे सब भी मेरे साथ सुख का अनुभव कर सकें ऐसी व्यवस्था करें। (इस प्रकार की योजना को कार्यान्वित करने से राज्य-धर्म भी निभेगा और आपकी आज्ञा का पालन भी होगा ।) विमल कुमार का उत्तर सुनकर उसके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए और बोले-पुत्र ! बड़ों का मान रखने वाले हमारे लाडले ! तुमने बहुत ही सुन्दर कहा। तेरे जैसे विवेकी पुरुष को तो यही कहना चाहिये और ऐसा ही करना चाहिये । विमल का हिमगृह में निवास धवल महाराजा की प्राज्ञा से मनोनन्दन उद्यान में एक विशाल हिमगह (ताप नियंत्रित गृह) बनवाया गया। यह हिमगृह निरन्तर कमल के पत्तों से प्राच्छादित रहे इस प्रकार इसकी रचना की गई । नीलरत्न जैसे हरे केले के वृक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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