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________________ ५५ प्रस्ताव ५ : प्रतिबोध-योजना को भी अपने लावण्य से पराजित करने वाली सुन्दर राजकन्यायों को देख कर भी उन पर आसक्त क्यों नहीं होता ? वह स्वयं रूपातिशय से कामदेव को भी तिरस्कृत करता है, सभी कलानों में निष्णात है, शरीर से स्वस्थ है, सभी इन्द्रियां भी पूर्ण एवं पुष्ट हैं और उसने अभी तक किसी मुनि का दर्शन भी नहीं किया है, फिर भी युवावस्था का विकार उस पर क्यों असर नहीं करता ? वह कभी अर्ध उन्मीलित नेत्र से किसी पर कटाक्ष भी नहीं फैकता, मुख से मन्द मन्द स्खलित वचन भी नहीं बोलता, वाद्य एवं गायन कला का भी उपयोग नहीं करता, सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण नहीं करता, मदान्ध भी नहीं होता, सरलता का त्याग भी नहीं करता और विषय सुख का तो नाम भी नहीं लेता । अरे ! इसका यह संसार-विमुख अलौकिक चरित्र कैसा है ? यदि यह प्रिय पुत्र इस प्रकार विषय सुखों से विमुख होकर साधु की तरह रहेगा तो हमारा यह राज्य निष्फल है, हमारी प्रभुता व्यर्थ है, वैभव निष्प्रयोजन है और हम जीवित भी मृत समान हैं । प्रतएव राजा-रानी ने विचार किया कि इस पुत्र को किस प्रकार विषयों में प्रवृत्त करवाया जाय । एकान्त में दोनों ने गहराई से विचार-विमर्श किया और अन्त में इस निर्णय पर आये कि उसे विषय - सुख का अनुभव करवाने के लिये पाणिग्रहण का प्रस्ताव स्वयं ही कुमार के समक्ष रखना चाहिये । वे जानते थे कि पुत्र विनयी, उदार हृदयी और सरल स्वाभावी होने से हमारी बात कभी नहीं टालेगा । माता-पिता का कथन ऐसा परामर्श कर धवल राजा और कमलसुन्दरी एक दिन विमलकुमार के पास आये और कुछ प्रसंग निकाल कर बोले- प्रिय ! सैकड़ों मनोरथों के बाद हमें तुम्हारी प्राप्ति हुई है । यद्यपि तुम अब राज्य-धुरा को धारण करने में सक्षम हो गये हो तथापि तुम अपनी * अवस्था के अनुरूप कार्य क्यों नहीं करते ? राज्य- भार क्यों नहीं संभालते ? राजकन्याओं से विवाह क्यों नहीं करते ? अनेक प्रकार के विषय सुखों का भोग क्यों नहीं करते ? कुल-संतान की वृद्धि क्यों नहीं करते ? अपनी इस शान्त र सुखी प्रजा को प्रानन्दित क्यों नहीं करते ? अपने स्वजन -सम्बन्धियों ह्लादि क्यों नहीं करते ? प्ररणयिजनों (प्रेमीजनों ) को संतुष्ट क्यों नहीं करते ? अपने पितृदेवों का तर्पण (तृप्त ) क्यों नहीं करते ? मित्र वर्ग को सन्मानित क्यों नहीं करते ? और हमारे इन वचनों को मान्य कर हमें हर्षविभोर क्यों नहीं करते ? बिमल का उत्तर अपने माता-पिता की बात सुनकर विमलकुमार ने मन में विचार किया कि माता-पिता ने बहुत ही सुन्दर बात कही है । इनकी यही बात इनको प्रतिबोधित * पृष्ठ ५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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