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________________ उपमिति-भव प्रपंच कथा त्रैलोक्य को आनन्द देने वाले हे लोक बन्धु ! मैं सद्भाव को धारण कर रहा हूँ, फिर भी आप मुझे इस संसार सागर से तारने में विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? लगता है, आप मुझे भूल गये हैं। हे करुणामृतसागर ! मैं दीन-हीन अनाथ बनकर आपकी शरण में आ गया हूँ तथापि आप मुझे भव से पार नहीं करते ।* हे स्वामिन् ! शरणागत के साथ इस प्रकार व्यवहार करना कदापि उचित नहीं है। हे नाथ ! आप दयालु हैं तब इस घोर संसार अटवी में एक छोटे हिरण के बच्चे के समान मुझे अकेला क्यों छोड़ रखा है ? यह आपकी कैसी दयालुता है ? भयभीत और निरालम्ब अकेला हरिण का बच्चा जैसे घोर जंगल में इधर-उधर तरल दृष्टि दौड़ा कर सहायता के लिये देखता है वैसे ही हे नाथ ! मैं भी असहाय और भयत्रस्त बना सजल नेत्रों से इधर-उधर आपकी सहायता की अपेक्षा कर रहा हूँ, क्योंकि आपके अतिरिक्त इस संसार में मेरा कोई अवलम्ब नहीं है । आपकी सहायता के बिना मैं तो इस संसार जंगल में भय से ही मर जाऊंगा। हे अनन्तशक्तिसम्पन्न ! जगत् के आलम्बनदायक नाथ ! मुझ अनाथ को इस संसार रूपी जंगल से पार कर निर्भय करिये । हे नाथ ! जैसे इस संसार में सर्य के अतिरिक्त कमल को विकसित करने में कोई सक्षम नहीं है, वैसे ही हे जगच्चक्षु ! आपके अतिरिक्त इस जगत से मेरी निर्वृत्ति करने में (मझ को उबारने में) अन्य कोई समर्थ नहीं है। क्या यह मेरे कर्म का दोष है ? या मेरा स्वयं (कष्ट-साध्य अधम अात्मा) का दोष है ? अथवा दूषित काल का प्रभाव है ? या मेरी प्रात्मा अभी तक भव्य नहीं बन पाई है ? __ सदभक्तिग्राह्य भुवन-भूषण ! क्या मुझ में आपके प्रति अभी तक ऐसी निश्चल भक्ति ही उत्पन्न नहीं हुई है ? खेल ही खेल में कर्म के जाल को छिन्न-भिन्न करने वाले ! कृपातत्पर हे स्वामिन् ! आप मुक्ति के इच्छुक मुझ को अभी तक मुक्ति क्यों नहीं देते ? हे जगत् के अवलम्बन ! मैं आपसे स्पष्टतया निवेदन करता हूँ कि हे नाथ ! इस लोक में आपको छोड़कर मेरा और कोई आधार नहीं है, कोई शरणदाता नहीं है। हे प्रभो! आप ही मेरे माता, पिता, भाई, स्वामी और गुरु हैं । हे जगदानन्द ! हे प्राणेश्वर ! आप ही मेरे जीवन हैं। * पृष्ठ ४६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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