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________________ ६. विमल-कृत भगवत्स्तुति [ मेरे अत्यन्त अधम व्यवहार के उपरान्त भी विमलकुमार ने अपनी सज्जनता बनाये रखी। मेरे प्रति अपने प्रेम-भाव में थोड़ी भी कमी न आ पाये इसका पूरा ध्यान रखा । मेरे प्रति उसने अपना सम्बन्ध पहले की ही भांति निरन्तर रखकर अपनी महानता और विशिष्टता का परिचय दिया । ] अन्यदा एक दिन मैं विमल लोचन विमल के साथ क्रीडानन्दन उद्यान में स्थित तीर्थकर महाराज के मन्दिर में दर्शन करने गया। वन्दन-पूजन की समस्त विधियां/क्रियायें पूर्ण होने के पश्चात् विमल ने अत्यन्त मधुर वाणी में श्री जिनेश्वर देव की स्तुति प्रारम्भ की। विमल अभी स्तुति कर ही रहा था कि इतने में ही अपनी देदीप्यमान द्युति से दिशाओं को प्रद्योतित करता हुआ रत्नच्ड विद्याधर वहाँ आ पहुँचा। उसके साथ अन्य बहुत से विद्याधर भी आये थे। उन्होंने पीछे खड़े होकर कर्णप्रिय अत्यन्त मधुर आवाज में गाई जा रही भगवान् की स्तुति को सुना। स्तुति सुनकर रत्नचूड अतीव प्रमुदित हुआ । वह सोचने लगा कि, अहा ! धन्यात्मा विमलकुमार जगत्बन्धु महाभाग्यवान् श्री परमात्मा की स्तुति कर रहा है, धन्य है उसे ! हमें उसकी स्तुति को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिये। फिर उसने बिना कुछ शब्द किये संकेत मात्र से ही सब विद्याधरों को शान्त रहने का संकेत किया और स्वयं भी पाम्रमंजरी के साथ चित्रलिखित-सा हलन-चलन रहित निश्चल होकर खड़ा हो गया। उस समय विमलकुमार के नेत्र अानन्द अश्र ओं से पूरित हो गये। उसकी दृष्टि तीर्थंकर देव के मुख पर एकाग्र और स्थिर हो गई। उसकी वाणी अतिशय गम्भीर हो गई और उसका सम्पूर्ण शरीर रोमांचित पुलकित हो गया। उस समय उसमें भक्ति का आवेश इतना प्रबल हो गया कि उसके प्रभाव में मानो वह साक्षात् शाश्वत परमात्मा श्री जिनेश्वर भगवान् के सम्मुख खड़ा होकर उन्हें उपालम्भ की भाषा में, विश्वास-आश्वासन की भाषा में, स्नेह युक्त प्रणय शब्दों में, प्रार्थना और प्रेम की मधुरता से विशुद्ध मन से स्तुति करने लगा। [७-१५] इस अपार महा भयंकर संसार समुद्र में डूबे हुए प्राणियों को तारने वाले हे नाथ ! इस भीषण भवसागर में पड़े हुए मुझ को आप क्यों भूल गये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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