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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उस स्थान को साथ ले जाकर बताया और रत्न दिखाया। इतना प्रत्यक्ष प्रमाण देकर वह बोली-इस दुरात्मा वामदेव को अब मैं चकनाचूर कर दूगी। वनदेवी के निर्णय को सुनकर विमल ने प्रार्थना की-देवि ! सुन्दरि ! ऐसा न करिये। यदि आप ऐसा करेंगी तो मेरे मन को अत्यन्त दु:ख होगा। सुजनता की पराकाष्ठा विमल की प्रार्थना पर देवी ने मुझे छोड़ दिया, पर लोगों ने मेरी जी भर कर खूब निन्दा की, शिष्ट लोगों ने मुझे धिक्कारा और मेरा तिरस्कार किया, बालकों ने मेरी हंसी उड़ाई और स्वजन सम्बन्धियों ने भी मुझे घर से निकाल दिया। लोगों की दृष्टि में मैं तृण से भी अधिक तुच्छ और नीच हो गया। विमल में इतनी महानता थी कि इतनी अधिक लज्जाकारी घटना हो जाने पर भी वह अब भी मुझे पहले जैसा ही मित्र मानता था और मुझ पर पहले जैसा ही स्नेह रखता था। अपने स्नेह में, अपने प्रेम-भाव में उसने कोई कमी नहीं आने दी। एक क्षण भी मेरे से अलग नहीं होता था और मुख से भी यही कहता था- मित्र वामदेव ! ना-समझ लोग कुछ भी कहें, तू अपने मन में तनिक भी उद्विग्न न होना, क्योंकि सब लोगों को प्रसन्न करना तो बहुत कठिन है। अतः लोगों की बात पर तुझे ध्यान ही नहीं देना चाहिये। हे अगृहीतसंकेता ! विमलकुमार जब उपरोक्त बात कह रहा था तब उसे मेरे दुष्ट चरित्र के बारे में सब कुछ मालूम हो गया था। तब भी मैं बहुलिका (माया) के प्रभाव से ऐसा दुष्ट व्यवहार कर रहा था और भाग्यशाली विमल फिर भी मेरे साथ ऐसा अच्छा बर्ताव कर रहा था। इसका कारण यह था कि सूर्य चाहे पश्चिमी दिशा में उदय हो और पूर्व में अस्त हो, क्षीरसमुद्र भले ही अपनी मर्यादा को छोड़ दे, प्राग का गोला भले ही बर्फ जैसा ठण्डा हो जाय, मेरु पर्वत चाहे तुम्बी की तरह पानी पर तैरने लगे, पर अकारण करुणा और स्नेह वाले सज्जन पुरुष तो दाक्षिण्य समुद्र से प्रोत-प्रोत ही होते हैं। जिसका आदर किया हो, जिसे एक बार अपना लिया हो, उसे वे नहीं छोड़ते। भद्रे ! यही सज्जनों की वास्तविक महत्ता है। सज्जन पुरुष दुष्टों की चेष्टाओं को जानते हुए भी नहीं जानते, देखते हुए भी नहीं देखते और स्वयं परम पवित्र शुद्ध प्रात्मा बनकर ऐसे लोगों पर थोड़ी भी श्रद्धा नहीं रखते। हे अगृहीतसंकेता! उस समय मेरे सगे सम्बन्धियों ने मुझे छोड़ दिया, मेरा बहिष्कार कर दिया, लोगों ने मुझे अधम माना तथापि महात्मा विमलकुमार ने मुझे अपने पास रखा । मैं उसी के साथ रहने लगा। [१-६] * पृष्ठ ४६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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