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प्रस्ताव ५ : विमल-कृत भगवत्स्तुति
जैसे बिना पानी के मछली तड़फ-तड़फ कर मर जाती है वैसे ही हे नाथ ! यदि आप मेरा तिरस्कार करेंगे, मेरे प्रति उपेक्षा रखेंगे तो मैं भी इस भूमि पर निराश होकर तड़फ-तड़फ कर मर जाऊंगा।
हे प्रभो ! मेरा मन आप में पूर्णतया निश्चल हो चुका है, यह तो मैंने स्वयं अनुभव किया है । हे केवलज्ञानी! आप तो अन्य लोगों के मन में रहे हए समस्त भावों को जानने वाले हैं, फिर मैं आपको यह बात किस मुख से निवेदन करूं ?
प्रभो ! मेरा मन तो कमल के समान है और आप त्रिभुवन को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं। जैसे सूर्य के उदित होने पर कमल विकसित होता है वैसे ही आपका ज्ञान रूपी प्रकाश मेरे चित्त को विकसित कर मेरे कर्म रूपी कोष को विदीर्ण कर देता है।
हे जगन्नाथ ! आपको तो अनन्त प्राणियों की परम्परा के व्यापार पर ध्यान देना पड़ता है अतः आपकी मेरे ऊपर कैसी दया-माया है, मैं नहीं जानता।
जैसे मोर बादल को देखकर नाच उठता है वैसे ही हे जगन्नाथ ! आपका सद्धर्म रूपी नीरद (मेघ) रूप देखकर मेरा मन मयूर नाच उठता है और मेरे हाथपाँव भी नृत्य करने लगते हैं।
भगवन् ! यह तो कृपा कर मुझे बताइये कि मेरा इस प्रकार नाच उठना वास्तव में आपकी भक्ति है या कोरा पागलपन ?
जब आम्र वृक्ष पर मंजरियां आ जाती हैं तब उसे देखकर जैसे कोयल स्वतः ही मधुर तान कुहू-कुहू छेड़ देती है। वैसे ही सुन्दर रस और प्रानन्द-बिन्दुसंदोह-दायक ! आपको देखकर मेरे जैसा मूर्ख भी मुखर हो जाता है और आपकी स्तुति करने लग जाता है ।
हे जगत्श्रष्ठ ! हे स्वामिन् ! मैं मूर्ख और असम्बद्ध प्रलाप करता हूँ ऐसा मानकर आप मेरी उपेक्षा नहीं करें, तिरस्कार नहीं करें, क्योंकि सन्त/सज्जन पुरुष नत व्यक्ति के प्रति वात्सल्यभाव के धारक होने के कारण उनके प्रति कुछ भी ऊंचा-नीचा कह देने पर भी रुष्ट नहीं होते।
हे जगन्नाथ ! बच्चा तुतला-तुतला कर अस्पष्ट, अस्त-व्यस्त और झूठे सच्चे शब्द बोलता रहता है फिर भी क्या उसके निरर्थक प्रलाप से पिता के आनन्द में वृद्धि नहीं होती ?
उसी प्रकार हे प्रभो ! मैं मूर्ख भी बच्चे की तरह ग्राम्य शब्दों द्वारा कुछ भी उल्टी-सीधी बकवास (स्तुति) कर रहा हूँ। मेरी इस बकवास से आपकी प्रसन्नता में वृद्धि हो रही है या नहीं ? कृपया यह तो बताइये।
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