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प्रस्ताव ५ : विमल का उत्थान : गुरु-तत्व-परिचय
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भाई ! मुझे तेरे साथ अभी निम्न विषय में विशेष रूप से विचार करना है । इस संसार रूपी कैदखाने से मेरा मन अब विरक्त हो गया है, विषय मुझे दुःख से आछन्न लगते हैं, प्रशमभाव लोकोत्तर अमृत के प्रास्वादन जैसा लगता है,* अतः अब मुझे गहस्थ में न रहकर भागवती दीक्षा लेनी है। मेरे माता-पिता और बहुत से भाई-बन्धु भी हैं उनको भी प्रतिबोध प्राप्त हो, क्या ऐसा कोई मार्ग या उपाय है ? यदि मेरे माध्यम से किसी उपाय से उन्हें भी प्रतिबोध हो सके और वे भी भगवद्भाषित धर्म को प्राप्त कर सकें, ऐसा कोई उपाय आपको ज्ञात हो तो विचार कर मुझे बतलाइये जिससे मैं तत्त्वतः बान्धव-कार्य का आचरण कर, उनका भी हितसाधक बन सकू। अर्थात् उन पर तात्त्विक उपकार करने का मुझे अवसर मिल सके और मैं अपने कर्तव्य को पूर्ण कर सक, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मैं अपना कर्तव्य निभा सकू यह सम्भव नहीं है।
बुधाचार्य-परिचय
रत्नचूड-भाई विमल ! हाँ, इसका मार्ग है । एक बुध नामक प्राचार्य हैं। यदि वे किसी कारणवश किसी प्रकार यहाँ पधार सकें तो आपके स्वजन सम्बन्धियों और ज्ञातिजनों को अवश्य ही प्रतिबोधित कर सकते हैं, क्योंकि ये प्राचार्य अतिशयों के निधान, अन्य प्राणियों के मन के भावों (विचारों) को जानने में निपुण, प्राणियों को प्रशम-रस की प्राप्ति करवाने में असाधारण, अद्वितीय विद्वान्, संयमवान् और योग्य समय पर समयानुकूल वारणी बोलने में अतिशय विचक्षण हैं ।
विमल--आर्य ! ऐसे असाधारण गुण-लब्धि-सम्पन्न बुधाचार्य को आपने कहाँ देखा?
रत्नचूड-गई अष्टमी को इसी क्रीडानन्दन उद्यान के इसी मन्दिर में जब मैं अपने परिवार के साथ भगवान की पूजा करने आया था तब इन पूज्य आचार्य को मैंने मन्दिर के बाह्य द्वार के पास देखा था। मन्दिर में प्रवेश करते समय मैंने महान् तपोधन मुनिवृन्द को देखा था। उनके मध्य में एक बड़े तपस्वी बैठे थे जो वर्ण से काले, आकृति से वीभत्स, त्रिकोण सिर वाले, बांकी-टेढ़ी लम्बी गर्दन वाले, चपटी नाक वाले, विकराल और छिदे-छिदे दांतों वाले, लम्बोदर, सर्वथा कुरूप और दर्शक को देखने मात्र से उद्वेग प्राप्त हो ऐसे थे। जो अति मधुर और गम्भीर स्वर से स्पष्ट समझ में आने योग्य वर्ण और उच्चारण से सुन्दर, भाव एवं अर्थपूर्ण भाषा में आकर्षक धर्मोपदेश सुना रहे थे। यह देखकर दूर से ही मेरे मन में विचार आया कि ये प्राचार्यश्री देशना तो उच्चकोटि की सुना रहे हैं, शब्द-गांभीर्य भी बहुत
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