SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 815
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा परम्परा के योग्य है, तुम में रही हुई पात्रता/योग्यता को देखकर ही मैंने तनिकसा प्रयत्न किया था। यद्यपि समग्र भावों को जानने वाले तीर्थंकरों को भी लोकान्तिक देव जागृत करते हैं तथापि वे देव तीर्थंकरों के उपदेशक या गुरु नहीं हो जाते, ऐसा ही मेरे विषय में समझो। [२२६-२३०] विमल -महात्मन! ऐसा मत कहो। तुमने मेरे लिये जो कुछ किया है उसकी तुलना लोकान्तिक देवों के प्राचार से नहीं की जा सकती । भगवान् को बोध लोकान्तिक देवों के निमित्त से नहीं होता, जबकि तुमने तो भगवान् के बिम्ब का दर्शन करवाकर मरा सम्पूर्ण रूप से कल्याण किया है । सर्वज्ञ-भाषित धर्म की प्राप्ति में जो भी प्राणी तनिक भी निमित्त साधन बनता है वह परमार्थ से गुरु ही है । [२३१] तुमने मुझे सर्वज्ञ धर्म की प्राप्ति करवाई, अत: तुम मेरे गुरु हो इसमें क्या संशय है ? सद्गुरु का विनय एवं वैयावृत्य (सेवा) करना सज्जनों का कर्तव्य है, अत: तुम्हारे उपकार के बदले में मैं तुम्हारा विनय करू यह तो मेरा कर्तव्य है। बन्धुवर ! भगवान् की आज्ञा है कि स्वधर्मीबन्धु कैसी भी स्थिति का हो तब भी उसकी वन्दनादि विनय करनी चाहिए। तब मुझे सद्धर्म की प्राप्ति कराने वाले तुम्हारे जैसे महानुभाव का विनय न करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। किसी भी प्रकार की अपेक्षा या आकांक्षारहित होने से तू मेरा पवित्र सदगुरु है, अत: तेरा विनय करना योग्य ही है । [२३२-२३४] रत्नचूड-कुमार ! ऐसा मत कहो। तुझमें इतने अधिक गुण हैं कि उन गुणों की अपेक्षा से तू देवताओं का भी पूज्य है, वस्तुतः तुम ही मेरे सत्गुरु हो, अत: तुम्हारा कथन किसी प्रकार उचित नहीं लगता। [२३५] विरक्ति और कर्तव्य विमल-सर्वगुण-सम्पन्न कृतज्ञ महामना पुरुषों का यह स्पष्ट लक्षण है कि वे अत्यन्त भक्तिपूर्वक अपने गुरु की पूजा करते हैं, उनकी सेवा करते हैं और उन्हें सन्मान देते हैं। जो प्राणी अपने गुरु का दास, भृत्य और गुलाम बनकर उनकी सेवा करने में लेश मात्र भी नहीं लजाता वही सच्चा महात्मा, पुण्यात्मा, भाग्यशाली, कुलवान, धैर्यवान, जगत् वन्दनीय, तपस्वी और विद्वान् है । जो शरीर गुरु की सेवाशुश्रूषा में तत्पर रहता है वही सच्चा शरीर है । जो वारणी गुरु की स्तुति करती है, गुरु के गुणगान करती है वही सच्ची वाणी है और जो मन सदा गुरु में लवलीन रहता है वही सच्चा मन है । धर्मदान का उपकार करने वाले प्राणी के उपकार का बदला करोड़ों जन्मों तक उसकी सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता। [२३६-२४०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy