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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अच्छा है किन्तु गुणानुसार उनका रूप नहीं है। इस प्रकार विचार करते-करते मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ। रत्नचड का देव-पूजन मन्दिर में पहुँचकर मैंने भगवान् के बिम्ब के साथ टकटकी लगा दी। मैंने भगवत्प्रतिमा के ऊपर से निर्माल्य (पूर्व दिन में अचित) फूल चन्दनादि उतारे, सम्मार्जन (मोरपींछी आदि से) किया, जल से प्रक्षालित कर स्वच्छ वस्त्र से पोंछ कर विलेपन किया, पूजन की, पुष्पों से शोभित किया, मंगल दीपक प्रज्ज्वलित किया, सुगन्धित धूप किया और समस्त प्रकार के सांसारिक, मन्दिर सम्बन्धी और द्रव्य पूजा सम्बन्धी कार्यों का प्रतिषेध किया। अनन्तर बैठने के स्थान का प्रमार्जन (शुद्ध) कर भूमि पर दोनों घुटने और दोनों हाथ टिका पर पञ्चांग प्रणाम कर भगवत्मुख की ओर दृष्टि को एकाग्र किया। सद्भावनाओं के कारण शुभ परिणाम बढ़ने लगे, हृदय में आत्य न्तिक भक्ति प्रकट हुई, नेत्र हर्षाथ प्रों से पूरित हो गये, शरीर रोमांचित हो गया और रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया । मानो मेरा सारा शरीर कदम्ब पुष्प हो ऐसा विकस्वर हो गया । अत्यन्त भक्ति में लीन होकर अर्थज्ञानपूर्वक मैंने शक्रस्तव से प्रभु की स्तुति को, पञ्चांग प्रणाम किया और भूमि पर बैठ गया। फिर योग मुद्रा धारण कर सर्वज्ञ प्ररूपित प्रवचन एवं शासनोन्नतिकारक प्रधान (श्रेष्ठ) स्तोत्रों से भगवान् की स्तुति की। स्तुति करते-करते भगवान् के गुणों से अन्तःकरण रंग गया। तदनंतर* पुन: पञ्चांग प्रणाम कर, उसी अवस्था में प्रमोद में वृद्धि करने वाले प्राचार्यादि को नमस्कार किया। उसके बाद पुनः खड़ा होकर जिन मुद्रा धारण कर चैत्यवन्दन किया और अन्त में मुक्ताशुक्ति मुद्रा से प्रणिधान किया। इसी बीच में मेरे परिवार ने भी भगवान् के सन्मुख चढ़ाने योग्य बलिविधान (नैवेद्य) और स्नात्र पूजा के उपकरण (सामग्री) तैयार की तथा अलंकारों से गुम्फित श्रेष्ठ वस्त्र का चन्द रवा बांधा। तत्पश्चात् जिनाभिषेक-पूजन (स्नात्र पूजा) प्रारम्भ की। इस समय संगीत प्रारम्भ हुअा, कलकाहल (ढोल) बजाया जाने लगा, सुघोषा घंटा बजाया जाने लगा, नरघा और भारणक बजने लगे, दिव्य दुंदुभियों की स्वर-लहरी निकलने लगी, शंख का मधुरनाद होने लगा, पटह (नगारे) बजने लगे, मृदंग पर ताल दी जाने लगी और कंसालक की ध्वनि फैलने लगी। इस प्रकार इन वाद्ययंत्रों की स्वर-लहरी के साथ स्तोत्र पाठ (स्नात्र पूजा) की मधुर शब्दावली गुञ्जरित होने लगी। इधर एक ओर मन्त्र-जाप चल रहा था और उधर पुष्पवर्षा की गई। पुष्पों की सुगन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर पंक्ति झणझणाट/गुजारव करने लगी। महामूल्यवान् रस, सुगन्धित औषधियां और पवित्र तीर्थों के जल से जगत के समस्त प्राणियों के बंधु जिनेन्द्र प्रतिमा का आनन्दपूर्वक अभिषेक किया जाने लगा। तत्पश्चात् शांति एवं धीरजपूर्वक आम्रमंजरी ने अभिषेक-पूजन किया। आम्रमंजरी * पृष्ठ ४६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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