SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 811
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०. उपमिति-भव-प्रपंच कथा भी रक्तिम लग रही थीं। लटकती हुई मोतियों की मालाओं के झूलों में जड़े हुए मरकत (नीले) रत्नों की किरणों से श्वेत चामर (चंवर) भी श्याम वर्णी प्रतीत हो रहे थे। श्वेत चामरों में लगे स्वर्ण निर्मित दंडों से छत में जड़े हुए काच भी पीतवर्णी (पीले) दिखाई देते थे। काचमण्डल में जहाँ-जहाँ लाल रंग की मणियों के टुकड़ों से हारमालायें जड़ी हुई थी और इन मरिणयों की हारमाला के नीचे शुद्ध स्वर्ण की किंकिणी जाल (घूघरों की लड़ें) लटकाई हुई थीं। ऐसे अनुपम सौन्दर्य वाले मन्दिर में प्रवेश कर हम सब ने भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा के दर्शन किये। विमल को जाति-स्मरण ज्ञान स्वर्ण निर्मित भगवत्प्रतिमा मनोहारिणी थी, विकार रहित थी, झूठे आडम्बरों से मुक्त थी, अतीव शान्त और दैदीप्यमान थी तथा इस मूर्ति की प्रभा चारों दिशाओं में फैल रही थी। [२०४] साथ में आये हम चारों व्यक्तियों ने अत्यन्त उल्लसित भाव से हर्ष से आँखें विस्फारित कर जिन-बिम्ब के दर्शन किये और भगवान् आदिनाथ को नमन किया। रत्नचूड और आम्रमञ्जरी ने भी जिन-प्रतिमा की विधि-पूर्वक वन्दना की, उस समय पवित्र आनन्द की उर्मियों के उल्लास से उनका शरीर पुलकित एवं रोमांचित हो गया था। चराचर तीनों लोकों के समस्त जीवों के बन्धु युगादीश भगवान के बिम्ब को देखते ही विमलकुमार का जीववीर्य अतिशय उल्लसित एवं प्रस्फुटित हया, उसने बड़े-बड़े कर्म के जाले तोड़ दिये, उसकी सद्बुद्धि में वृद्धि हुई और गुणों के प्रति दृढ़ अनुराग उत्पन्न हुआ । वह सोचने लगा - अहा ! भगवान् का कैसा कमनीय और मनोहारी रूप है ! इस बिम्ब में कैसी अलौकिक सौम्यता है ! अहा इसका निर्विकारीपन ! अहो इसकी अतिशयता ! अहो इसका कितना अचिन्त्य माहात्म्य है, अद्वितीय प्रभाव है ! अहा ! इनके इस प्रकार के निष्कल मनोहर आकार से ही अनन्त गुरण-समूह की महत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। प्रतिमा के दर्शन से ही यह सुनिश्चित प्रतीत होता है कि ये देव वीतराग हैं, वीतद्वेष हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं । [२०५-२०६] इस प्रकार चिन्तन करते-करते ही विमल ने मध्यस्थ भाव से स्वकीय प्रात्मा के साथ लगे कर्म-मल को कितने ही अंशों में* क्षय कर दिया और उसे जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे उसे पूर्व-भवों की समस्त घटनायें (चित्रपट के समान) याद आने लगीं। अपने पूर्व-जन्मों के दृश्य देखकर वह इतना रस-विभोर हो गया कि उसे मर्छा आ गई । वह मन्दिर के फर्श पर गिर गया, जिसे देखकर सब सम्भ्रम * पृष्ठ ४८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy